Tuesday 2 August 2016

यादों के झरोखों से - बचपन और ऐन्टेना.



यादें.............. 

किसी विशेष काल चक्र से सम्बंधित लोगों, वस्तुओं, यात्राओं, आदतों, घटनाओं, गीत-संगीत, समारोह आदि का एक गट्ठर होती हैं यादें। इस गट्ठर का एक भी हिस्सा या उस जैसा कुछ भी  कभी भी अचानक से आँखो के सामने जाये तो वह बीत हुआ पल, पल भर में सजीव हो उठता है। कहीं होते हैं हम और कहीं होकर चले आते हैं, क्षण भर में। शायद समय की यात्रा (TIME-TRAVELLING) इसे ही कहते हैं।  

और यदि ये चीजें आपके बचपन से जुडी हों तो फिर क्या कहना, जैसे बारिश के बाद मिटटी से उठने वाली सोंधी-सोंधी खुशबू  से मन तो प्रफुल्लित हो उठता है। आहाहाहाहाहा....... वाह , क्या कहना। खैर ......... आज हमने भी कुछ ऐसा देख लिया कि बस कर आये टाइम-ट्रैवेलिंग। खो से गए। वो तो शुक्र है टेक्नोलॉजी का कि पैंट की पॉकेट में एक कैमरा युक्त फ़ोन था। फिर क्या ....... बिजली की गति से हमने ज़ेब में हाथ डाला और फ़ोन निकाल कर ऐसा निशाना साधा कि पलक झपकते कैद कर लिए उस दृश्य को।  वाह........ खुश तो ऐसे हो रहे थे कि कोई नाया सी चीज मिल गयी हो।

आप लोग भी सोच रहे होंगे कि क्यों पागल हुआ जा रहा है ये लौंडा।  ऐसा क्या मिल गया बे।  तो भाई जरा ध्यान से देखिये ऊपर के चित्र में। कुछ दिखा ? अरे गौर से देखिये। हाँ-हाँ ये ऐन्टेना ही है जो ९० के दशक में हम लोगों के घरों की छतों की शान हुआ करते थे। शायद आज के दौर के बच्चे समझ पाएं किन्तु मेरी उम्र के या उससे पहले के लोग इस पोस्ट से दिल से जुड़ पाएंगे। भाई , इस ऐन्टेना का घरों की छतों पर होना भी अपने आप में गर्व की बात होती थी। जिसका ऐन्टेना जितना बड़ा, वह उतना ही बड़ा तुर्रम खान।  

वो कहते हैं कि जो वस्तु जितनी ही कठिनाई से मिले उसकी उतनी ही कीमत - इसके बाद जो अभिमान की अभिभूति होती है, बिलकुल वैसी ही अभिभूति इस ऐन्टेना के डायरेक्शन को सेट करने के बाद टीवी में बिलकुल क्लियर पिक्चर लाने पर होती थी।  माँ कसम गर्व से सीना चौड़ा हो जाता था। इस सुखद और गर्व के एहसास को आज के बच्चे समझ पाएंगे। बेटाआआआआ हर किसी के बस की बात नहीं होती थी ये

हर घर में इस कार्य को सम्पादित करने के लिए एक विशेष टीम होती थी जो इस कार्य में दक्ष होते थे। सामान्यतः चाचा-भतीजे की जोड़ी होती थी इस टीम में। बेमिसाल टीम वर्क, बेहतरीन को-आर्डिनेशन और दिशाओं की सटीक जानकारी का एक बेजोड़ उदाहरण था ये कार्य। हर किसी ऐरे-गैरे, नत्थू-खैरे के बस की बात थी ये। क्रिकेट मैच जैसे खास आयोजनों पर इस टीम को विशेष रूप से तैयार रहने को कहा जाता था कि मैच के दौरान कोई गड़बड़ नहीं होनी चाहिए इस टीम का हर एक सदस्य एक ऐसी जिम्मेदारी के एहसास से ओत-प्रोत होता था कि इनकी भाव-भंगिमा को देखकर किसी की इनके आस-पास फटकने की हिम्मत नहीं होती थी। हर कोई इस टीम का खास बनना चाहता था और इनके दिए गए दिशा-निर्देशों को लोग बड़ी आज्ञा भाव के साथ पालन करते थे।  

DD METRO- यह चैनल आज भी मेरे लिए रहस्य ही है। उस समय के ज्यादा YO लड़के अक्सर इस चैनल की चर्चा करते पाए जाते थे और HE-MAN उनका सबसे पसंदीदा कार्टून सीरियल हुआ करता था। मुझे कभी समझ नहीं आया कि ये चैनल टीवी पर आता कैसे था  ! क्या करना पड़ता था इस चैनल के लिए।  कई जुगत लगाए।  सबसे बड़े साइज का ऐन्टेना लेकर लगाए किन्तु असफल ही रहे।  फिर किसी तकनीकी रूप से अपडेटेड लौंडे ने बताया की ऐन्टेना में स्पीकर का चुम्बक लगाओ, तब आएगा मेट्रो चैनल। हमने भी उसको तहे दिल से धन्यवाद दिया और एक कबाड़ी की दुकान से आख़िरकार ढूंढ ही निकाला वो चुम्बक। बस जैसे कोई खजाना हाथ लग गया हो। लेकिन क्या - चुम्बक वाली विद्या से भी कोई भला हुआ।  टॉय-टॉय फिस्स। हम बेचारे के बेचारे ही रह गए। 

हाहाहाहाहाहाहाहाहाहा......    कितना हास्यास्पद लगता है ये सब अब। टेक्नोलॉजी इतनी अपडेट हो गयी है कि जिनती ही फुर्ती के साथ मैंने ये इमेज कैप्चर की थी उससे कहीं अधिक तेजी के सात अब टीवी के चैनल बदले जा सकते हैं।  किन्तु इस चित्र ने मेरे बचपन के ऐसे पल का रसास्वादन करा दिया था कि शब्द नहीं है मेरे पास इस अनुभव को व्यक्त करने के लिए।  किन्तु इसने एक बेचैनी बढ़ा दी मेरी कि ये मेट्रो चैनल कैसे पकड़ता था ??????

इस  अक्षय प्रश्न के जवाब की खोज में  !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

Wednesday 6 July 2016

जिंदगी- सपने और सच

बहुत दिनों बाद..... आज अपने लैप टॉप के साथ समय व्यतीत करने का मौका मिला ! ऐसे ही कुछ भी इधर- उधर करते-करते एक ट्रेवलिंग वेबसाइट पर पहुंच गया | यूँ ही नज़र एक एडवेंचर ट्रिप पर पड़ी - मनाली से लद्दाख रोड ट्रिप और वो भी बाइक से | सुन  तो बहुत रखा था इसके बारे में मेरे अपने कई दोस्तों से, जो अपने आप को एडवेंचर के शौकीन मानते थे | कई बार प्लानिंग भी की लेकिन वही टांय-टांय फिस्स, जो हमारे कई प्लान्स के साथ अक्सर होता रहता है |

कौतुहूल वश मैने भी अपनी उंगलियों की गति बढ़ा दी | संडे की सुबह थी और  कुछ खास करने को भी नही था इसलिए गूगल का सहारा लेकर इस रोमांचक ट्रिप से जुड़ी कई कहानियों को, जो किसी न किसी के व्यक्तिगत अनुभव ही थे, पढ़ डाली और उनके द्वारा साझा की गयी तस्वीरें भी देख डालीं | वाह. . . . . . . . .  . . . . . . मजा ही आ गया, बेहद सुखद अहसास | मै तो कुछ देर के लिए वहीं पहुच गया | मनों बाइक पर  सवार चला जा रहा हूँ | एक लम्बा रास्ता, सर्पाकार, पहाड़ियों के बीच से निकलता हुआ    . . . . . . . . . जहां तक नज़र पहुचती केवल पहाड़ ही पहाड़, जिन पर सफेद बर्फ की चादर  पड़ी हुई है और उनके बीच से गुजरते हुए रास्ते यूँ प्रतीत होते हैं कि किसी ने सफेद कागज पर एक लाइन खींच दी हो |

इन चित्रों के बीच से गुजरते हुए ये  ख्याल आया कि क्या ऐसी भी कई जगह हो सकती है ! सामान्य ज़िंदगी और भीड़ से इतनी दूर, न कोई शोर- शराबा, न कोई भाग-दौड़, सब कुछ ठहरा सा, सुलझा-सुलझा सा | केवल प्रकृति की गोद, चारों ओर पहाड़ , झील, बर्फ , सभी उलझनों से दूर एकान्त और शान्ति |  यहीं लैप टॉप पर बैठे -बैठे लिखने से ही इतना सुकून मिल रहा है तो वहाँ पहुचने के बाद क्या होगा ! काश इसी अनुभव को मोक्ष कहते हैं, सभी इच्छाओं की समाप्ति ! इसी सन्नाटे मे विलीन हो जाने को, खो जाने को, आत्म, आत्मा और  परमात्मा की खोज में ही ऋषि मुनि पहाड़ों की राह पकड़ते होगे और वर्षों की शांति की साधना के उपरांत खुद को एवं जीवन के उद्देश्य की प्राप्ति करके सिद्ध पुरुष बनते होंगे |

खाना खा लो.. . . . . . . . . .सुबह से लैप टॉप मे ही घुसे हो - पत्नी और माता जी दोनो की अवाज एक साथ कानों मे आयी।  सिद्धियों की प्राप्ति से बस कुछ कदम ही दूर था कि इन दो मातृशक्तियो द्वारा सत्यता के धरातल पर खींच लिया गया।  सपना टूट चुका था।  पेट भरने का समय हो गया था सो तौलिया उठा कर बाथरूम की तरफ चल दिए नहाने को, मन मसोसते हुए, जैसे कोई मोती-माणिक हाथ से छूट गया हो। नहाते- नहाते सपनों के सभी कच्चे रंग पानी के साथ बह गए और हम भी फटाफट पेट पूजन करने चल दिए।

दिल मे एक स्पंदन हुआ,
इच्छाओं ने पर फैलाये,
घर पर बैठे-२,
हम जाने कहां हो आए। 

तंद्रा टूटी आँख खुली ,
सपनों की सारी पोल खुली,
सच्चाई की तेज आँच में ,
ख्वाहिशों की होलिका जली।  

Sunday 21 June 2015

" बाढ़................! "

प्रति दिन की तरह अपने कार्यालय में, करीब १५ लोगों से घिरा, कंप्यूटर पर नजरे गड़ाए हुए, लोगों की समस्याएं सुलझाने में व्यस्त ! अचानक से मेरे कार्यालय सहायक ने कुछ पूछा, जिस पर सोचते हुए मैं बोला कि कल करते हैं इसे ! तो कार्यालय सहायक ने कहा कि कल तो संडे है सर ! संडे......... कल संडे है ? अच्छा ! और एक बार को मैं कहीं खो सा  गया, फिर अपनी तन्द्रा से बाहर आते हुए मैंने अपने कार्यालय में जमा भीड़ को जल्दी से निपटाया।

                                                   जैसे ही थोड़ा खाली समय मिला तो मैं सोचने लगा कि ये पिछला संडे तो कल ही ख़त्म हुआ था न ! और मंडे आया था। इस हफ्ते की शुरुवात हुयी थी। इतनी जल्दी इस बीच के ६ दिन बीत गए और कल फिर संडे। मन में एक प्रश्न आया कि समय को पंख लग गया है क्या कि बस उड़े ही जा रहा है? कब सुबह होती है और फिर शाम हो जाती है, कब सोमवार आता है और कब शनिवार, कब हफ्ता शुरू होता है और कब ख़त्म। इसी तरह दिन, महीने, और साल! सब बस निकलते जा रहे हैं । 
                                                    जिंदगी इतनी व्यस्त है, दिन भर में इतने काम होते हैं, इतनी घटनाये होती हैं, कि आज कौन सा दिन है! इससे भी फर्क नहीं पड़ता। हर दिन एक जैसा - कुछ न कुछ काम है, सबको निपटना है। कभी-कभी तो ऐसा होता है कि सुबह को किया हुआ काम शाम तक याद ही नहीं रहता और जब हम उस काम के बारे में सोचते हैं तो लगता है कि जैसे ये तो कई दिन पहले किया हो। कुछ महीने पहली की घटना तो सदियों पुरानी लगती हैं । 
                                                     मैं थोड़ा और अतीत की गहराईयों में उतरा और याद करने लगा कि बचपन में दिन कितने बड़े होते थे। सुबह, दोपहर, शाम और रात होती थी। हफ्ते के सातों दिनों का कुछ मतलब होता था। संडे का बेसब्री से इंतजार होता था। महीने और साल के बारे में तो सोचते ही न थे। शायद ये समय का वो अंतराल होते थे जो कि काफी बड़े होते थे और हमारे छोटे से मस्तिष्क में ये समा ही नहीं सकते थे। दिवाली, होली, नए साल, गर्मियों की छुट्टी का इन्तजार होता था। इनके लिए प्लानिंग होती थी, तैयारियां होती थी ।
 
                                                     पर अब तो सुबह के बाद केवल रात होती है। किसी विशेष दिन का कोई मतलब नहीं होता। ये विशेष दिन आते हैं और चलें जाते हैं, हम केवल काम करते हैं या काम की बात करते रहते हैं। पहले किसी खास दिन को मानाने की तैयारियां होती थी, और अब किसी खास दिन को निभाने की तैयारियां होती हैं, वो भी इतने व्यस्त रहते हुए कि उस दिन का कोई खास एहसास हो ही नहीं पाता। समय बदल गया है, छोटे से बड़े जो हो गए हैं हम। जिम्मेदारियां आ गयी हैं। अब हम, हम नहीं रहे । अब तो लोग हमें जैसा देखना चाहते हैं, हम वैसे रहते हैं। हमारी कोई इच्छा नहीं होती, हमसे जुड़े लोगों की इच्छाएं ही हमारी इच्छाएं होती हैं ।  
 
                                                    जैसे जब किसी नदी में बाढ़ आती है और उसमे सब कुछ बह जाता है, उसमे डूब रहा इंसान बेबस होता है। वह केवल हाथ पैर मारकर बचने की कोशिश करता है और बहता जाता है। सोचता रहता है कि कहीं तो ये बढ़ ख़त्म हो। कहीं तो ठहरने का मौका मिले, ताकि दम लिया जा सके । आराम कर सकूँ। लेकिन बाढ़ ख़त्म होने का नाम नहीं लेती और सब कुछ बहा ले जाती है और जब बाढ़ ख़त्म होती है, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। सब कुछ नष्ट हो चुका होता है। अवशेष ही बचते हैं। सब कुछ वीराना हो जाता है। 

                                                     और इस समय भी बिलकुल ऐसा हो रहा है। समय रुपी नदी में बाढ़ आई हुयी है, जिसमे हम बहे जा रहे हैं। कहीं खाली समय रुपी किनारा नहीं मिलता कि वहां रुक कर दम भरा जा सके, कुछ सोचा जा सके। और अपनों की इच्छाए हैं जो एक भंवर या एक लहर की तरह आती हैं, रह-रह कर चोट करती हैं
दुहरी मार की तरह है ये। बह भी रहे हैं और थपेड़े भी खा रहे हैं । पता नहीं ये बढ़ कहाँ ले जाएगी! कहीं कोई छोर नहीं दिखता……………………………….. दूर-दूर तक ।

यहाँ पर अपनी ही कुछ लाइनें गुनगुनाने को जी चाह रहा है, कि-


हैं जिंदगी व्यस्त बहुत !
पूरे करने हैं काम बहुत !
चाहता हूँ मैं सोना क्यूँकि,
थक गया हूँ मैं बहुत!
बनकर ख्वाब नींद में मेरे,
अगर तुम आ जाओ…………….
तो क्या बात हो !
तो क्या बात हो !
 

Friday 7 February 2014

कोई नाराज है ………


एक अगन सी है मेरे सीने में ,
कि आज हमसे कोई नाराज है ....
दिल ये कुछ बेचैन है ,
कि आज हमसे कोई नाराज है ....
कटता नहीं एक भी पल उसके बिना,
कि आज हमसे कोई नाराज है ....
सब कुछ सूना सा है,
कि आज हमसे कोई नाराज है ....
फिसल रहे हैं हाथों से मेरे ये कीमती पलों के मोती,
कि आज हमसे कोई नाराज है ....
समझने का दावा करके भी न समझ पाये उन्हें ,
कि आज हमसे कोई नाराज है ....
नामुराद हूँ जो उनका दिल दुखाया,
कि आज हमसे कोई नाराज है ....
क्या करूँ ज़तन उनकी मुस्कान के लिए ,
कि आज हमसे कोई नाराज है ....
चाहूंगा माफ़ी, जरा सी वो बात तो कर ले,
कि आज हमसे कोई नाराज है .... 
"लो छोड़कर दुनिया सारी, झुक गए सामने तेरे
कोई नहीं..... कोई नहीं........ केवल तुम हो मेरे,
इक आरजू है कि भूल कर हमारी पिछली लड़ाई,
बोल दो कि अब नही … हम अब नही नाराज हैं।"