Sunday 28 June 2020

शॉपिंग...😁

यह कला बेहद पुरानी है और इस कला में पारंगत होना आपको औरों से अलग रखता है। नहीं तो लाख खर्च कर के कुछ भी ले आइये, कोई काम का नहीं। खासकर कपड़ों के मामले में। यदि आपको समझ नही है तो आपका तो कटना तय है। रुपया पैसा आदि की खोज से पहले इस कला का प्रारम्भ हो चुका था। प्राचीन काल में इस कला के तौर तरीकों पर मैं नहीं जाऊँगा। जैसे भी करते रहें हो उनकी बला से। लेकिन एक बात तो तय है कि जिस तरह से अन्य कलाओं को सीखने के लिए अभ्यास और समय की जरूरत होती है, उसी तरह शॉपिंग जैसी कला को सीखने के लिए भी आपको अधिक नहीं बहुत अधिक समय देना पड़ेगा। एक बार आपके पास पैसे न हो तो भी चलेगा। वो कहते हैं न कि खरीदना नहीं तो देख ही लेना। हा हा ...😂।

मुझे शॉपिंग करना नहीं आता। नौकरी से पहले तो मैं मुश्किल से ही दुकानों पर जाता था। गया भी तो घर से लिस्ट बना ली, दुकान पर जाकर थमा दी और बाद में दुकानदार के लिखने के अनुसार हिसाब लगा लिया। दिक्कत तो तब आती थी जब कपड़े लेने हों। अगर दुकानदार कामचोर निकला तो दो-चार टाइप ही दिखाता था जिसमें पसन्द न आने पर बड़ी मुश्किल से ही कह पाता था कि कुछ और दिखाओ। ये कुछ और दिखाओ मेरा आखिरी प्रयास होता था (चूंकि एक ही काम को कोई मुझे बार-२ बोले तो मैं झल्ला जाता हूँ इसलिए दुकानदार के मनोभावों को समझ लेता था कि अब ये झल्लाहट की सीमा पर पहुंच चुका है या फिर पहुँच न जाये इसकी फिक्र मुझे ज्यादा रहती थी)। यदि कुछ अच्छा लगा तो ठीक वरना जो भी सामने पड़ा हो उसे ही ले लेता था। फैशन सेंस तो मुझमें था नहीं और दुकानदार को बार-२ परेशान करने की हिम्मत मुझमें थी नहीं। कहीं मना कर दिया दिखाने से..... ! तो....! इसलिए बेइज्जती न हो, इस डर से मैं कुछ भी ले लेता था। अब चाहे वो कपड़ा मुझ पर ठीक लगे या न लगे, मैं अपने आपको उसमें अच्छा दिखने की कल्पना कर लेता था। इस तरह जब तक वो कपड़ा चलता मेरी शंका का एडजस्टमेंट चलता रहता। इसी वजह से मुझे छोटी दुकानों से नफरत हो गयी। न तो उनके अंदर उपभोक्तावाद के चलते उपभोक्ता के प्रति सम्मान और न ही अपनी चीजों को दिखाने का सलीका होता है। इसीलिए मैं जाता भी नहीं।

नौकरी लगी। अब पैसे का संकोच नहीं। लेकिन दिल में दुकानदार के मना कर देने का डर आज भी जिंदा है। इसलिए ऐसी दुकानें जहाँ सामान निकाल कर दिखातें हैं, मतलब सामान सामने नही होता है, मैं वहाँ जाता ही नहीं। मॉल कल्चर मेरे लिए वरदान साबित हुआ और कपड़ों के अलावा छोटी-२ घरेलू चीजों के लिए तो ऑनलाइन मार्किट तो मानो सीधे प्रभु की कृपा। मेरे जैसा आदमी आज तक सारी शॉपिंग ऑनलाइन। अब तो सब्जी भी ऑनलाइन आता है। लखनऊ में हूँ लेकिन मजाल हो कि यहाँ की प्रसिद्ध अमीनाबाद बाजार गया ! बीवी के साथ भी नहीं। इतनी भीड़। मतलब की दुकान ढूढने में ही पसीना आ जाए। कभी सामने से रिक्वेस्ट आ जाए तो सीधे मना.... भले ही गृह युद्ध हो जाए। खा लेंगें एक दो थप्पड़। 

फैशन सेंस की कमी को छुपाने के लिए सीधे ब्रांडेड स्टोर । और कसम गरीबी वाले संकोच की कि कभी टैग देखने की कोशिश की हो। स्टोर वाला क्या सोचेगा? इज्जत नही गिरानी अपनी। पूरे कॉन्फिडेंस से अटेंडेंट को आवाज दी और अपनी जरूरत बात दी। जहाँ सामान उपलब्ध वहां वाले सेक्शन पर ले जाया गया। दो-चार पीस देखा, थोड़ा सा निराश होने जैसा मुंह बनाया और दो-तीन सेट निकलवा लिए। पहन कर देखा गया। जम तो नहीं रह था लेकिन लेडी अटेंडेंट बोल दी सर अच्छा लग रहा है, आप पर जँच रहा है। फिर क्या जितने सेट निकले थे सब पैक करा लिए। जोश में बिलिंग भी हो गयी। क्रेडिट कार्ड से भुगतान भी हो गया। फिर उस लेडी अटेंडेंट ने मुस्कुरा कर थैंक्यू बोला और हम भी मुस्कुराते हुए बाहर की ओर। लेकिन स्टोर से पार्किंग में खड़ी गाड़ी तक पहुँचते-२ सोचे कि यार लेना तो एक ही शर्ट था और ले लिए क्या-२। बिल भी पन्द्रह हज़ार का। घर पहुँचे लेकिन बीवी को दाम नही बताए। बोल दिए सेल चल रहा था ४० % ऑफ का। हफ्ते भर अफसोस रहा। बस खुशी इतनी थी कि कपड़ा ब्रांडेड था और दो-चार लोग तारीफ भी कर दिए थे। पता नहीं क्यूँ? कहीं पद की वजह से तो नहीं। छोड़ो हटाओ।

बीवी के साथ शॉपिंग मेरे लिए बेहद कठिन। ये नहीं कि समय बहुत लगता है। वो तो यूनिवर्सल समस्या है और उसके लिए मैं  तैयार रहता हूँ। अब धीरे-२ बच्चे हो गए हैं तो उनकी समय लगाने वाली आदत बदल रही है। मुझसे ज्यादा जल्दी में तो वो रहती हैं। खैर.....! मुद्दे पर आते हैं। मैं परेशान हूँ उनकी मुँह पर सीधे मना कर देने वाली आदत से। घण्टों देखने के बाद सीधे मना और दुकानदार को सुना अलग से देना कि घटिया दुकान है और कुछ ढंग का है ही नहीं इनके पास। चाहे वह दुकान गाढ़ा भंडार जैसी बड़ी दुकान क्यूँ न हो। मेरे जैसा संकोची आदमी अंदर ही अंदर दो गज जमीन के नीचे। गायब होने का मंत्र आता तो मैं अब तक पढ़ चुका होता।

एक बार की बात है। किसी दोस्त की शादी में जाना था और बीवी को अर्जेंट शॉपिंग करनी थी। रात के नौ बजे थे । आलमबाग बाजार घर से 5 मिनट की दूरी पर, गाड़ी से। गाड़ी उठायी और आलमबाग। इस उम्मीद के साथ शायद कोई दुकान मिल जाए। मॉल में जाते तो गाड़ी खड़ी करने से दुकान तक पहुँचने में 10 बज जाते। इसलिए नही गए। गाड़ी धीरे-२ सभी दुकानों को निहारते हुये चली जा रही थी कि एक साड़ी भंडार खुला मिल गया। झट से गाड़ी से उतरे और दुकान पर। दुकानदार बोला कि अब बंद हो रही है कल आइए लेकिन फिर पीछे से किसी मालिक टाइप आदमी की आवाज आई कि आने दो और शटर थोड़ा डाउन कर दो। खैर.....उसने दिखाना चालू किया। लगभग एक घंटे की मेहनत के बाद, बीवी के सेलेक्टिव नेचर के बावजूद मेरी भारी कोशिशों के उपरान्त तीन पीस सेलेक्ट हुए। इस बीच लग रहे समय और दुकानदार के चेहरे के भावों को पढ़कर मैं बहुत ही अधिक प्रेशर में था। कि दुकान बन्द होने जा रही थी और भाईसाहब ने हम पर कृपा करके एक घण्टे दे दिए। 

बिलिंग काउंटर पर पहुँचे ही थे कि बीवी के मन में क्या आया और वो बोल पड़ी- नहीं चाहिए........! रहने दो......! कुछ खास नही लग रहे कपड़े...... ! भाईसाहब ..........! मैं तो बिल्कुल जड़ हो गया। सर से लेकर पाँव तक भाव शून्य। क्या बोलूँ? बड़ी मुश्किल से मैंने दुकानदार की तरफ देखा। उसके चेहरे की भाव भंगिमा पढ़ने के बाद मैं तपाक से बोल पड़ा कि क्यूँ नही चाहिए। बढ़िया तो है! बीवी- नहीं...... नहीं चाहिए। मैंने स्थित और दिल दोनों को संभालते हुए थोड़ा जोर लगाकर कहा कि नहीं मुझे ये दो पसंद हैं और में ये ले रहा हूँ। तीसरी वाली, ये वाली निकाल देते हैं। इस तरह मैंने बीवी की बात को कुछ हद तक रखते हुए जबरदस्ती दो पीस ले लिए और बिलिंग कराकर बिजली की गति से दुकान से बाहर। उस दिन मुझे समझ आया कि शॉपिंग के लिए जेब मजबूत हो न हो, दिल जरूर मजबूत होना चाहिए। कमजोर दिल वालों के बस की बात नहीं। उसके बाद से मैं कभी गलत समय पर बीवी को लेकर शॉपिंग को नहीं गया। आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि जबरदस्ती में लिए गए वो कपड़े आज तक नहीं पहने गए! खैर.............मौके पर जान बची और क्या चाहिए। भले ही इस जान बचाने की कीमत कुछ भी हो.......!

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२८.०६.२०२०

Saturday 27 June 2020

लालच!

कोई ये कहे कि उसके अन्दर लालच नही है तो गलत कहता है। कभी-२ ये लालच बड़ा होता है और कभी छोटी-२ चीजों का लालच। बचपन से शुरू ये आदत जीवन भर साथ देती है, बस रूप बदलता रहता है। मेरी माने तो अगर लालच न रहे तो जीवन का कोई पर्याय नही है। साधु-सन्त, सन्यासी वगैरह भी ईश्वर को पाने के लालच में ही दुनिया की मोह-माया का त्याग करते हैं।

मेरे छोटे बेटे। डेढ़ साल के । खाने की कोई चीज लेकर बैठो तो खाएँगे बाद में, पहले बड़े वाले बेटे को धक्का मार-२ कर दूर करेंगें। पता नहीं ये प्रोग्राम कैसे डेवलप हो गया। इसकी कोडिंग कब हो गई हमसे। हम तो इतने होनहार न थे। खैर..... अभी तो इस हरकत पर प्यार आता है। इससे साबित होता है कि लालच सीखा नहीं जा सकता, ये इनबिल्ट होता है। बड़े बेटे में नही है इस तरह के लालच की अतिरेकता और न वो छोटे को देखकर सीख पाया।

मेरे जीवन में लालच का रूप अलग है। नई किताब का लालच, उसे सूँघने का लालच। एक अच्छे पेन का लालच। एक अच्छी और खूबसूरत संगत का लालच। वीडियो गेम का लालच। नए गैजेट का लालच। टेक्नोलॉजी का लालच। एकान्त में बैठने का लालच। कई और हैं........ सब नही बता सकता! अब इन सभी लालच में कुछ खरीदे जा सकते हैं और कुछ आपकी किस्मत से पूरे होते हैं। मेरे पूरे भी हुए। लेकिन मजा तो तब हो जब आपका ये लालच आप खुद न पूरा करें , कोई और गिफ्ट कर दे। आहा.......! आपका लालच अगर आपको मुफ्त में मिल जाये तो इससे बड़ा सौभाग्य कोई नही, इस खुशी का कोई मोल नहीं और इस लालच को पूरा करने वाला ईश्वर से कम नहीं। मगर अफसोस .... इस जीवन में कुछ भी मुफ्त नही मिलता। आज या कल कीमत अदा करनी पड़ती है। करनी पड़े ... हमें क्या... फिलहाल मौके पर जो खुशी मिलती है उसे क्यूँ छोड़ा जाए।

आज-कल एक नया लालच जुड़ गया है- मास्क और हैंड सैनिटाइजर का लालच। न जाने कितने रूप में उपलब्ध हैं ये। भाँति-२ के मास्क और तरह-२ के छोटे, कॉम्पैक्ट, पॉकेट साइज सैनिटाइजर की बोतलें गज़ब का आकर्षण पैदा करती हैं। अब आप किसी से मिलें। आपका मास्क सामने वाले से बेहतर हो तो गर्व होता है। आत्म विश्वास बढ़ जाता है। सामने वाले को बेचारे की नज़र से देखने का जो आनन्द मिलता है कि बस पूछिये मत। इस पर आप जेब से एक खूबसूरत डिज़ाइन की बोतल से सैनिटाइजर निकालकर लगा लें और अपने ही बढ़ते घमण्ड को कम करने के लिए एक जोक भी छोड़ दें तो सोने पे सुहागा। बन गया भोकाल। सामने वाला चारों खाने चित्त और आप विजयी😁। कुछ ही पल में एक मानसिक लड़ाई के विजेता और आपकी ताजपोशी। हा हा ......! गज़ब होता है इन्सान। 

फिलहाल.....! ये मास्क और सैनिटाइजर हैं बेहद जरूरी पर खरीदने को दिल नहीं करता। एक दो बार ही खरीदें होंगें, वो भी दिल पर पत्थर रखकर। ये चीजें कोई गिफ्ट कर दे तो मजा ही आ जाए। इस समय ये वस्तुएँ लालच की पराकाष्ठा पर हैं। यदि मेरे अगल-बगल का कोई व्यक्ति ईश्वर बनने की ख्वाहिश रखता हो तो उसका स्वागत है। हम उसे ईश्वर का दर्जा देने को तैयार हैं..........😜।

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२७.०६.२०२०

Friday 26 June 2020

टेम्पर्ड ...

अनुभवों से मुझे पता चला है कि व्यक्ति गरीब नही होता है, उसकी सोच गरीब होती है। भारतीय माध्यम वर्गीय व्यक्ति पर यह लाइन शत प्रतिशत लागू होती है। हो भी क्यूँ न ? एक नई साईकल भी ले लें तो सालों उस पर लगी पॉलीथिन नही उतरती। वो व्यक्ति रोज उस साईकल के साथ-२ पॉलीथिन को भी चमकाता है। अब साईकल से मोटर-साईकल, मोटर- साईकल से कार और फिर प्लेन, वह आदमी कितना बड़ा हो जाए उसकी सोच नही बदलेगी। दिमाग से वो गरीब ही रहेगा। वो कार और प्लेन की सीट की पन्नी नही उखड़ने देगा।

खैर..... मेरा नया वाला लैपटॉप दो बार पटका जा चुका है। मेरे घर में दो हरफनमौला किरदार (रात के समय हाइपर-एक्टिव) और बेहद ही मजबूत दिल से कन्फीगर्ड, मेरे दो बच्चों का नया खिलौना बन चुका है मेरा लैपटॉप। मेरे जैसे गरीब सोच वाले व्यक्ति की औलादें इतने मँहगे शौक न जाने कहाँ से पा गए। जरूर माँ ने ही इंस्टाल किये हैं। खैर....! दो बार लैपटॉप के पटके जाने से हार्ट अटैक तो नही आया मगर दिल पर दो चार खरोंच जरूर आ गई। हद तो तब हो गई जब बड़े वाले बाकायदा अपनी जीत दर्ज करने के लिए लैपटॉप जमीन पर पटकने के बाद उस पर चढ़कर खड़े भी हो गए और पोज़ देने लगे। जैसे कोई सैनिक दुश्मन चौकी पर कब्जा करने के बाद तिरंगा लहराता है। 

पूरी रात बिस्तर पर करवटें बदलता रहा कि क्या किया जाए और कैसे बचाया जाए। छुपा कर और लॉक लगाकर तो बचाना मुश्किल हैं। क्यों न इस पर कोई हार्ड कवर लगा लिया जाए। ऑनलाइन सर्च किये मगर समझ नहीं आया। अगले दिन आफिस निकल तो ये सोच कर निकला कि आज लैपटॉप को सुरक्षित रखने की व्यवस्था किये बिना घर नही लौटूँगा। दिल में कुछ पाने की ठान लो तो फिर मिल ही जाता है। ऑफिस खत्म होने के बाद नाज़ा मार्किट पहुँचा। दो-चार दुकानों से मना कर दिए जाने के बाद निराश होने ही वाला था कि एक दयालु सज्जन ने मुझ पर दया दिखाते हुए जनपथ मार्किट में एक दुकान बता दी। आँखों में चमक लौट आयी। मैं जनपथ पहुँचा। बताई हुई दुकान भी मिल गई। उसने मेरा लैपटॉप देखा और बोला मिल जाएगा। हम भी चहकते हुए बोले, लगा दो। करीब 15 मिनट दुकान में खोजने के बाद वो बोला ये लैपटॉप तो नया है मगर मॉडल पुराना है इसलिए कवर मिल नहीं रहा। हमने भी बोल दिया - यार तुम्हारे पास सामान नही है तो ठीक है लेकिन पुराना बोलकर दिल पर घाव तो मत ही दो। खैर.......! जनपथ आये ही थे तो सोचा एक दो दुकान और देख लें।

फिर मिली एक दुकान ....... मैंडी मोबाइल । और यहाँ जाकर, मोबाइल को सजा-सँवार कर रखने वालों की शौक को परवान मिलता है। भाई साहब..... क्या दुकान! क्या भीड़! क्या दुकान पर काम कर रहे लड़कों की फुर्ती। इतनी भीड़ देखकर एक बार मैं फिर सोच में पड़ गया कि मैं तो लैपटॉप लेकर आया हूँ , निकालूँ कि नहीं। मिलेगा कि नहीं। मैने दबी जुबाँ में पूछा तो उत्तर मिला - हाँ मिल जाएगा। छोटू जल्दी से लैपटॉप का कवर निकाल। अब जाकर दिल को ठंडक मिली। इतना सुकून की दुकान पर लगने वाले एक घंटे भी बहुत अधिक नहीं लगे। इसी बीच मैंने अपना मोबाइल दिखाया कि इसका टेम्पर्ड मिल जाएगा? (बात दूँ कि इस मोबाइल के टेम्पर्ड की तलाश चार महीने से थी मगर नहीं मिल रहा था। श्री राम टावर भी हाथ खड़े कर चुका था। लेकिन वहीं है न कि जब अच्छा दौर चालू होता है तो सब अच्छा होने लगता है।) आज टेम्पर्ड भी मिल गया। वाह...... आज तो मजा ही आ गया। दुकानदार ने मस्त टेम्पर्ड लगाया। जब मोबाइल सामने आया तो विश्वास ही नही कि ये मेरा मोबाइल है। इतना खूबसूरत तो ये नए पर नही था। अब तो कोई लड़की दुल्हन के गेटअप में भी सामने आ जाये तो मैं अपना मोबाइल ही देखूँगा। 

मैं आज बेहद खुश होकर घर लौटा। कोरोना काल की रस्मों को निपटाने के बाद जब सुकून से हाथ में मोबाइल लेकर सोफे पर बैठा तो बैठते ही बच्चों की उछल-कूद में मोबाइल हाथ से सरक कर धरती को जा लगा। इस बार तो हार्ट अटैक मानो आ ही गया। हाये मेरा टेम्पर्ड। मोबाइल की फिक्र न होकर आज टेम्पर्ड की चिंता हो रही थी। झट से मोबाइल उठाया और टेम्पर्ड को सहलाने लगा। बच गया था। मध्यमवर्गीय गरीब सोच भी राहत की साँस ले रही थी। डर इतना था कि मैंने लैपटॉप को बैग से निकाला ही नहीं। कौन रिस्क ले .........!

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२६.०६.२०२०

Thursday 25 June 2020

बारात !

अच्छा हुआ इस कोरोना ने शादियों में बारातियों की संख्या कम कर दी! हुँह.......😷। आज कल भी कोई बारात होती थी! एक रात की शादी, कुछ टाइम की बारात और कुछ घंटों के बाराती। केवल पेट भरने या फिर चेहरा दिखाने आते हैं लोग। निमंत्रण लिखाने वाले उससे भी कम! कुछ अति जहरीले निकले तो नाच कूदकर एक कोने में जाकर अपना जहर उगले और निकले। लड़की को किराए की गाड़ी से घर लाना ही था तो इससे अच्छा लड़की खुद ऊबर बुक करके लड़के के यहां चली आती....... हुँह...! अच्छा हुआ कोरोना महाराज ने अपनी कृपा कर दी।

बारात तो हमने की है...... बचपन में और जवानी के उदय काल में भी। सुबह से तैयारी होती थी। कैसे नया वाला शर्ट जो साल भर पहले लिया था उसे निकालने की जल्दी होती थी। देर नही होनी चाहिए। सारी तैयारी कर जाकर खड़े हो गए..... शादी वाले घर पर नहीं! खड़ा वहां होता था जहाँ गाड़ियाँ खड़ी होती थी। सीट भी तो छेकानी थी। सूमो में बीच वाली सीट की खिड़की पकड़ कर बैठे। लेकिन बारात निकलने तक सारी एडजस्टमेंट होने के बाद बैठने को मिलता था तो ट्रेक्टर की ट्राली में । सारे समान की रखवाली का जिम्मा अलग । घंटों की मेहनत यूँ बर्बाद होती थी और मन में गुस्से का ज्वार सातवें आसमान पर अलग। तब तक गालियाँ नही सीखीं थी वरना दो चार बोलकर भड़ास निकाल लिया जाता। लेकिन ट्राली का मजा अलग। अक्सर ट्रॉली पर बैंड बाजे वाले बैठते थे । बस रास्ते भर मौज, गाना -बजाना और बगल से गुजरने वालों को दूर तक ताकना। कोई नया जोड़ा साईकल पर बैठकर निकलता हुआ दिख जाए तो बाँछें खिल जाती थी और नजरें उन्हें तब तक ताकती थी जब तक वो क्षितिज में विलीन न हो जाएं। इसी बीच नचनिया महोदय रास्ते में ट्रेक्टर रूकवाकर नाचने के लिए अपना ईंधन भी ले लिए और धीरे से फुल हो गए। हम भी तिरछे देखकर मुस्कुरा दिए।

बारात पहुंची । गाँव के बाहर रुकाया गया। कोई खेत या प्राथमिक विद्यालय में शामियाना लगा और एक कोने में खटिया और गद्दों का ढेर लगा हुआ। सब फटाफट अपना अपना कब्जा किये और बिस्तर छेंका लिए। दूल्हे की खटिया अलग और फूफा जी का मुआयना चालू। चद्दर तो गंदी है। ये भी कोई बात हुई। हमारा लड़का यहां बैठेगा। कतई नहीं। बवाल चालू। लड़की वाले शांत खड़े। तब तक गाँव के स्वघोषित कुछ सम्माननीय लोग पहुँच कर मामला शांत कराए। फिलहाल चद्दर बदल गई। लेकिन हमको का मतलब। हम तो पानी पिलाने वाले के बगल खड़े व्यवहार बनाने की कोशिश में..... ई भी कोई बात हुई ! एक चद्दर के लिए बवाल। बड़का फूफा बने हैं। पानी वाला भी हाँ में सिर हिलाया। बस क्या ..... धीरे से पटा कर मिठाई का दू डिब्बा अंदर। अब कोई भी काम हो तो पानी वाले को ढूंढ लिए और फिर पूरा वी आई पी  वाला ट्रीटमेंट लिए। अगल बगल वालों को जलाने का जो मजा वो और कहाँ। 

बारात द्वार-चार को बढ़ी। नाचने वालों में लोटने की होड़ और बाजे वाले से तरीके तरीके के गाने की माँग, लेकिन उस पर कोई असर नहीं। उसने जो एक लय पकड़ी तो आखिरी तक उसी पर डटा रहा। कई जीजा फूफा ताव दिखाए और चले गए मगर बाजे वाला टस से मस नही हुआ। हम नाचने वालो से सुरक्षित दूरी बनाकर बारात के सबसे आगे। द्वार पर सबसे पहले पहुँचे और व्यवस्था का  पूरा ब्यौरा लिया गया। इसी बीच दुल्हन की सहेलियों, भाभियों और न जाने किनसे किनसे मुस्कान का आदान प्रदान हो गया। कुछ ही देर में हम बाराती कम घराती ज्यादा। दुल्हन पक्ष को कुछ भी संदेश दूल्हा पक्ष को भेजना हो तो हमे ही ढूंढा जाए। फिर क्या घर भीतर तक इंट्री हो गई।

द्वार-चार हुआ। खाने पीने की तैयारी। दुल्हन पक्ष की गाँव की औरतें गारी गाने को तैयार। दूल्हा के मामा, फूफा, चाचा, बाबा का नाम चाहिए। कौन बताएगा। अब यहाँ पर भी हम आगे। इतनी देर से मेहनत जो कर रहे थे। फिर क्या हम सब नाम बता दिए.....लेकिन दूल्हा के रिश्तेदार का नहीं, दुल्हन के रिश्तेदारों का 😂😋। खैर गारी शुरू हुआ और फिर जोर की हँसवाई हुई। दुल्हन पक्ष से कौनो मरद दौड़ता हुआ आया.... ई का अपने ही घर वालों को गरियाये दे रही हो। औरतें संन्न ....! ये का हो गया। नज़रें हमको ढूढने लगी । हम भी मौका देखकर दाएँ बाएँ हो गए।  नाश्ता तो हम औकात से ज्यादा पेल चुके थे सो खाने की भूख थी नहीं। इधर शादी की शुरुवात होने लगी और उधर हम परदहिया सिनेमा खातिर सबसे आगे वाली लाइन में डटे मिले। सुबह चार बजे के आस पास भूख लगी। क्या किया जाए। पता चला कि अभी शादी चल रही है। तो उधर चल दिये और शादी के बाद वाली पंगत में बैठकर भूख मिटाई और निकल लिए सोने।

सुबह हुआ। नित्य कर्म से निपटकर पूरे गांव का एक चक्कर और फिर लड़की वालों के घर पहुंचकर पंचायत चालू। घर का सारा भेद लिया गया। कौन साली है, कौन मौसी और कौन मामी,,,, सब पता किया गया। मजाक वाले रिश्तों को टॉप पर रख गया। जूता कौन चुराएगा पता किया गया। आखिर में चलते चलते दूल्हे का खास जो बनना है। भाई.... सुबह का नाश्ता हुआ और फिर अँचर धराई का कार्यक्रम चालू। हम भी बिल्कुल तैयार, जूता के पास। कसम से हाथ तो पकड़ ही लेंगें। जूता जाए तो जाए। इसी बीच दूल्हा और दुल्हन की भाभी के बीच हंसी मजाक चालू हो गया। दूल्हा जी अंचरा कस के पकड़े थे और भाभी जी उनकी नाक। सब तफरी लेने में लगे थे और हम भी। बस यहीं हमारा कट गया। सब हंसी मजाक निपटने के बाद पलटकर देखे तो जूता गायब। अब काटो तो खून नहीं। सारे इरादों पर पानी जो फिर चुका था। फिर हमने नज़रें उठा कर इधर-उधर नहीं देखा। सारी खिसियाहट समेटकर धीरे से ट्राली की ओर। अब बारात में हमारे लिए कुछ नही बचा था 😑।

किस्मत अच्छी थी। खाने पीने का सारा सामान ट्राली पर रखाया। हम भी खुश। रास्ते के नाश्ते के इंतजाम हो गया। अब ट्राली पर बैठने का मलाल न रहा 😂। बहुत दिन से ऐसी बारात मिस करता था। आधुनिक बारातों में जाने की इच्छा तो नही होती थी मगर समाज की खातिर जाना पड़ता था। भला हो कोरोना का जो इसने बाराती की संख्या 50 तक सीमित कर दी। बुलाएगा तो हमें वैसे भी कोई नहीं लेकिन अगर गलती से पूँछ लिया तो कोरोना का बहाना तो है ही। नहीं जाएँगे। हा हा हा ......!

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२५.०६.२०२०

Wednesday 24 June 2020

बचत!

कोरोना काल में जीने को क्या जरूरी है और कितना जरूरी है, ये जानने को मौका मिला। प्रवासी मजदूरों की हालत देखकर पैसे और संसाधनों की कीमत समझ आई। अपने को कहीं अधिक बेहतर स्थिति में पाया। अब ये सोच लिया कि जरूरतें कम करनी हैं और समाज के लिए अधिक जीना है। जीवन के लिए जरूरी चीजों के अलावा कोई और खरीददारी नहीं।

घर में दो जोड़ी चप्पल टूटी पड़ी थीं। बहुत दिन से कष्ट हो रहा था। जब जरूरत हो तो टूटी चप्पल सामने। ये चप्पलें घर के भीतर पहनने वालीं थी तो इतने दिन काम चल गया। लेकिन जरूरत तो पड़ती ही थी। क्या करें? नई ले ली जाए? लेकिन क्यों? एक जोड़ी कम से कम 250 रुपये की तो पड़ेगी ही। दो जोड़ी के 500। न, क्यों पैसे बर्बाद किये जायें! फिर काम कैसे चले 🤔। मन में मोची के पास जाने का ख्याल आया। लेकिन अजीब लग रहा था कि इतनी मॅहगी चप्पल तो है नही जिसे मरम्मत कराकर सही कराई जाए😑।

फिलहाल मन को साधा गया और चप्पलों को समेटकर एक थैले में। सुबह ऑफिस निकलते वक्त गाड़ी में  रख लिए। और फिर क्या, यदि आप किसी अच्छे काम के लिए निकलो तो मुराद पूरी हो जाती है। वो ऐसा है कि ढूढने से भगवान भी मिलता है। तो मुझे भी मिल गया-मोची। बिल्कुल भगवान स्वरूप। झट से चप्पल बढ़ाई और पट से काम हो गया। 70 रुपये में काम चौकस। सीन चौड़ा हो गया। 430 रुपये बच गए। मानो किला जीत लिया हो। गर्व की अनुभूति के साथ गाड़ी में बैठे और घर। सीढियाँ दौड़ कर चढ़ीं और डोर बेल बजायी। दरवाजा खुला और हम मारे खुशी के चौड़े होकर बोले- काम हो गया, बच गए पैसे। बीवी ने एक तिरछी निगाह से हेय दृष्टि से देखा और मुँह बनाकर छोटे वाले बच्चे को लेकर बाथरूम की ओर चल दी। कुछ पूछा भी नही कि क्या हुआ। सारी हवा मिनटों में निकल गयी और खुशी छू मंतर। 

एक आदमी अच्छा काम केवल दिखावे के लिए करता है और उसके बदले तारीफ की उम्मीद करता है। उसके लिए अच्छा काम करके मिलने वाली खुशी से ज्यादा उस काम की तारीफ से मिलने वाली खुशी ज्यादा मायने रखती है😉। और वो मुझे यहां मिलने से रही😑। मैंने भी चप्पल वाला थैला एक किनारे रख दिया और खुशी को गुस्से में बदलकर कोरोना काल के नित्य कर्म में लग गया। चप्पल फिर टूटेगी, फिर बनेगी लेकिन जान है तो जहान हैं। नीचे फोटू वाले भैया को सादर प्रणाम, हमाये पैसे जो बचाये इन्होंने😎।
~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२४.०६.२०२०

Sunday 21 June 2020

अमराई......।

कोरोना का समय चल रहा है। सरकारी नौकर होने के कारण कभी घर बैठने का मौका नही मिला। एक आदमी चाहता भी कब है। कोई न कोई बहाना कर निकल ही जाता है बाहर। थोड़ा इधर-उधर करने। लाइन को मत पकड़ियेगा और गहराई में तो बिल्कुल भी न उतरियेगा।

गाँव से शहर तक का सफर तय किया है। एक व्यक्ति की औसत आयु का लगभग आधा जी चुका हूँ। अनुभव भी थोड़ा बहुत आ चुका है तो कुछ बातों को जोर देकर भी कह सकता हूँ। इसलिए तुलना करते हुए लिखता हूँ कि खाली बैठने का जो आनन्द गाँव-देहात में आता था वो शहरों के बंद कमरों में उपलब्ध सुविधाओं में कहाँ। मन एक जगह टिकता ही नहीं। खुरपेंच करने को बहुत सी चीजें आसानी से जो उपलब्ध हैं।

जेठ की दुपहरी हो, बिल्कुल तपती गर्मी, लू वाली। घर से नेनुआ भात भर गटई दबाय के खोपड़ी पर गमछा डार के सीधे टिबिल वाले बाग की ओर। न हाथ में मोबाइल और न जेब में पर्स। ले दे के साथ सत्तर रुपया, दस दस के नोट। आज खेत में पानी दिया जा रहा है, टिबिल चल रहा है। खेत के किनारे कच्ची नाली से पानी बहता हुआ जा रहा है। स्वच्छ, पारदर्शी और नदी सा कल-कल करता हुआ। कभी कभी तो सरजू मैया की याद दिलाता हुआ। एक पेड़ की छांव देखकर घस्स से बैठ गए पेड़ की टेक लगाकर, नाली में पैर डालकर। निहार रहे है पैर को। पानी की शीतलता पूरे शरीर को तृप्त करती हुई। नाली में उगी हुई घास लगातार पानी के बहाव से संघर्ष करती हुई। इसी बीच एक चींटी पानी के बहाव में दिखती है। किंतु उसने हार न मानते हुए मौका देखकर एक दूब को पकड़ ही लिया और अपनी जान बचाई। डूबते को तिनके का सहारा वाली कहानी चरितार्थ होते हुए सामने ही देखा।

काफी देर तक यूँ ही बैठे-2 जब आलस आने लगा, आये भी क्यूँ न, गटई तक नेनुआ भात जो पेले हैं, तो आम के पेड़ के नीचे पड़ी खटिया पर पसर गए। पीठ के बल। टिबिल के चलने का शोर लगातार कानों में पड़ रहा है। दूर-२ तक केवल खेत ही दिखते हैं। बिल्कुल सपाट और इस भीषण गर्मी में जलते हुए। बहती हुई लू साफ दिखती है। ले दे के दो चार किसान ही दिखाई पड़ रहे हैं। ऐसे में बाग में आम के पेड़ के नीचे की शीतलता एक अलग ही ठंडक पैदा कर रही है। इस बार आम अच्छे आए हैं। आम की फसल को निहारते, उनके पत्तों को निहारते, चींटियों द्वारा दो पत्तों को किसी सफेद पदार्थ से जोड़कर बनाये झोंझ को देखते , आम की खुशबू को सूँघते, कहीं दूर से आती कोयल की आवाज को सुनते हुए एक अलग ही रस पैदा हो रहा था। अगल बगल कोई न हो और दिमाग को कोई व्यवधान न हो तो व्यक्ति अपने पसंद के ख्यालों में आसानी से खो जाता है। ऐसे में भैया की साली की याद आ गई और तन बदन में एक अलग ही गुदगुदी कर गई। ज्यादा नही लिखूँगा इस पर , आप स्वयं ही आगे की कहानी समझियेगा। इसी बीच कौनो रसिक मिजाज आदमी साइकिल से रेडियो बजाता हुआ निकला- घूँघट की आड़ से दिलवर का ............ तन-बदन में एक लहर गुजर गई।

इसे कहते हैं एकांत। सारी सिद्धियाँ इसी में प्राप्त होती हैं। पूरी दुपहरी अपनी। चारों ओर प्रकृति। अलसाया सा तन। कभी गर्म तो कभी ठंडी हवा की छुवन । खुद को जानने समझने का पूरा मौका। इसे कहते हैं आत्म सुख। दो घंटा खूब ऐंठ कर सोने के बाद जब नींद खुली तो पूरी बनियान भीगी हुई। मगर शरीर में फुर्ती भरी हुई। उठ कर बैठ गए। थोड़ी देर बाद जब होश में आये तो उठकर सिंचाई वाली नाली के पास गए। मुँह धोये और गमछा से पोंछ कर चल दिये बाजार की ओर, पैदल ही। चाट खाएंगे हरा मिर्चा और खूब टमाटर और मूली का सलाद डालकर। चलते-२ भैया की ससुराल जाने का भी प्लान बना लिए। इस बार तो हाथ पकड़ना ही हैं उनका। ऐसे थोड़े ही। आखिर कब तक.........!!

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२१.०६.२०२०

Sunday 14 June 2020

The library and you!

Smell of book
And 
Smell of you 
Can loot me
In a few.
See the tragedy,
You are in library, 
Just in front of me.
Hey god of love
I'm losing myself
Please Control me.
There must be a notice 
Outside of library
The combination is not allowed
The library and you.

रेडियो एक्टिव !

तुम्हारे तन पर साड़ी 
लिपटी हो जैसे नागिन,
अदाओं ने तुम्हारी ओढ़कर इसे
जहरीला और कर दिया।

साड़ी पहनना चाहते सभी पर 
जन्मी है ये केवल तुम्हारे लिए,
हुनर और सलीके ने तुम्हारे आज
इस अधूरी को पूरा कर दिया।

देखो न आया करो सामने इस कलेवर में
हम अपनी जान की आज दुआ मांगते हैं,
रेडियो एक्टिव आप पहले ही क्या कम थीं
जो आज रेडिएशन का लेवल इतना अधिक कर दिया।

हम तो बस यही सोचकर परेशान हैं
दिल के मरीजों का हाल अब क्या होगा,
न्यूक्लियर हथियारों पर तो रोक-टोक है
पर आपको रोकने का इंतजाम क्या होगा।

Thursday 11 June 2020

पागलपन

तेरे उसके पास रहने से न जाने उसे क्यूँ डर सा लगता था
उसके अंदर का एक शख़्श बड़ा कमजोर महसूस करता था।

लग गयी थी आदत तेरी वो तुझे रोज दोहराता था,
कमबख़्त कुछ भी हो वो तेरा इन्तज़ार करता था ।

तेरे साथ न होने का उसको बड़ा मलाल रहता था,
खुद से परेशान होकर वो हज़ारों सवाल करता था ।

अच्छा हुआ जो तू चला गया, बिन बताए, हमेशा के लिए,
अब पता चला उसके अंदर एक शख़्श बेहद मजबूत रहता है।

इत्तफ़ाक से आज ख्वाब में तुम थे और नींद खुल गई उसकी,
पागल मिलने की ख़ातिर वो सोने की कोशिश बार-२ करता है।

Monday 8 June 2020

रिक्त ...!

रिक्त हूँ
व्याकुल भी 
कुछ पाना भी है
है सब हासिल भी।

शब्द ढेरों हैं
हैं भाव भी
लयबद्ध करने को 
रात अकेली भी।

समझ नही आता कैसे
और कहां से शुरू करूँ
लिखूँ क्या अब 
सोचती कलम भी।

पाने की बात क्या करना
मुश्किल है अब सोचना भी
तुझको बाँधना है कठिन मेरे लिए 
अब कविताओं में भी।

Thursday 4 June 2020

सबक! बेवजह.....

तारीख़ मुक़र्रर कर दो सजा की मेरी,
अब मुझसे और इंतज़ार नही होता।

अब तो दम घुटता है मेरा मेरी बेगुनाही से,
गुनाह करता तो शायद इतना न परेशान होता।

दरिया क्या ही गहरा होगा, कोई तो छोर होगा!
ये शब्दों के मतलबों का अब किनारा नही मिलता। 

देखो समय है अभी संभल जाओ ऐ लाल कलम वालों,
इक समझदार का बेवक़ूफ साबित होना, अच्छा नहीं होता।

वक़्त है ये ,आज तुम्हारा है तो कल मेरा भी आएगा,
पैसा, ताक़त, ग़ुरूर और समय किसी का सगा नही होता।