Monday 19 December 2016

तेरा नशा.......

नशा तो तेरी संगत का था ऐ मुसाफ़िर, पीने में वो बात कहाँ ......
बोतल में बंद ये मय तो खामखां बदनाम है।

झूमने का मज़ा तेरे संग और था, अब वो पागलपन कहाँ.........
क़दमों का लड़-ख़ड़ाना अब मेरा खामखां बदनाम है।

देर रात तक बेवजह, क़िस्से कहानियों का दौर वो सुनहरा था ........
महफ़िलों में पैमानो का ये दौर खामखां बदनाम है ।

आँखो के एक इशारे में हो जाती थी हज़ार बातें और किसी को ख़बर नहीं ...........
ये बेगुनाह नज़रें मेरी अब खामखां बदनाम है ।

रास्ते बदले, बदली मंज़िलें और छूट गया वो साथ.......
उनकी यादों को पिरोकर बनी ये ग़ज़ल खामखां बदनाम है।

12 comments:

  1. If anyone asks I would suggest him to read this poem instead of Madhushala..

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  2. इतनी इज़्ज़त ना नवाजिए जनाब ...... कहाँ मधुशाला और कहाँ ये । फिर भी हौशला आफ़जायी के लिए शुक्रिया ।

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  3. Wah subhanallah
    Kehne ko alfaaz kam hain bhai

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  4. Wah subhaanallah
    Kehne ko alfaaz kam hain bhai

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  5. If anyone asks I would suggest him to read this poem instead of Madhushala..

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  6. बेहद उम्दा ।

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  7. बेहद उम्दा ।

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