Monday 19 December 2016

तेरा नशा.......

नशा तो तेरी संगत का था ऐ मुसाफ़िर, पीने में वो बात कहाँ ......
बोतल में बंद ये मय तो खामखां बदनाम है।

झूमने का मज़ा तेरे संग और था, अब वो पागलपन कहाँ.........
क़दमों का लड़-ख़ड़ाना अब मेरा खामखां बदनाम है।

देर रात तक बेवजह, क़िस्से कहानियों का दौर वो सुनहरा था ........
महफ़िलों में पैमानो का ये दौर खामखां बदनाम है ।

आँखो के एक इशारे में हो जाती थी हज़ार बातें और किसी को ख़बर नहीं ...........
ये बेगुनाह नज़रें मेरी अब खामखां बदनाम है ।

रास्ते बदले, बदली मंज़िलें और छूट गया वो साथ.......
उनकी यादों को पिरोकर बनी ये ग़ज़ल खामखां बदनाम है।

Tuesday 13 December 2016

कोना

न जाने क्यों ये शब्द सुनकर चेहरे पर एक शैतानी भरी मुस्कान आ जाती है। ये शब्द तो छोटा सा है किंतु है व्यापक, जो विभिन्न परिस्थितियों और समय के अनुसार विभिन्न व्यक्तियों द्वारा भिन्न - भिन्न तरह से प्रयोग में लाया जाता है। कोना पकड़ना, कोने में लेना, मन का कोना, घर का कोना, जंगल में मंगल करने के लिए कोना इत्यादि इत्यादि। इन सब का अपना एक अलग मतलब, एक अलग अर्थ।

कोने की रेंज बहुत ज्यादा है और लगभग सबकी पसंद है ये। इश्क का इजहार हो या खुदा की इबादत, लेन-देन हो या फिर कोई पुरानी दुश्मनी निपटानी, शांति की खोज में हों या किसी का साथ का आनंद लेना हो- इस कोने का सबने अपने फायदे के लिए अपने हिसाब से प्रयोग किया है। बहुत महत्वपूर्ण स्थान है जिंदगी में कोने का।

इस कोने की न तो कोई जाति है, न कोई धर्म। निष्पक्ष और निराकार है। शांति और सुकून देता है तो शोर और डर भी पैदा करता है ये। न जाने कितने सपनों को साकार किया है इस कोने ने। किन्तु कोने के अकेलेपन की किसी ने सुध न ली। किसी कवि या लेखक ने भी कोने पर कुछ भी लिखने की जहमत नहीं उठायी। फिर भी कोई शिकायत नहीं। अपने में मगन मिलेगा ये आपको, हमेशा अपनी ही कंपनी को एन्जॉय करते हुए।

इससे बड़ा कोई मित्र नहीं कोई प्रेमी/प्रेमिका नही। जब भी आपको जरुरत हो ये अपनी बाहें फैलाये हुए आपका स्वागत करते हुए ही मिलेगा। चाहे प्रेम-प्रलाप में व्यस्त हो या किसी की चुगली में, दुःख हो या कोई ख़ुशी , कोई बड़ा फैसला लेना हो या कुछ छुपाना, आप कोना ही ढूंढते हैं। विश्वास-परक तो इतना है कि कुछ भी बोल दो, कभी लीक नहीं होगा।

संपूर्णता का प्रतिबिंब है ये कोना। हर व्यक्ति की जरुरत है ये कोना। मुझसे कोई पूछे कि आपको कैसा साथी चाहिए तो मैं कहूंगा कि कोने जैसावास्तव में जीवन उसी का सार्थक हुआ है जिसे मिल गया हो - कोना।

वैसे इस कोने के बारे में इतना पढ़कर आपके मन के कोने में उठ रहे विचारों को निपटाने के लिए भी कोने की ही जरुरत है। कोने पर लिखने का ख्याल भी मुझे एक कोने में ही आया था।

कोना!
प्यार के लिए,
इश्क़ के लिए,
इबादत के लिए,
दुआ के लिए,
शांति के लिए,
सुख के लिए,
खुराफात के लिए,
सपने को यथार्थ में बदलने के लिए,
बहुत जरुरी है- कोना।

Monday 12 December 2016

आराम- अब एक सपना।

काफी रात हो गयी थी। ट्रैन लेट थी। स्टेशन से भागता हुआ बाहर आया और एक रिक्शे वाले को आवाज दी, पर ये क्या ! उसने साफ़ मना कर दिया।

नहीं जा पाएंगे साहब।

क्यों?

अभी-अभी काम ख़त्म किया है साहब।

अरे भैया.......चलो......थोड़े ज्यादा पैसे ले लेना।

नहीं साहब। अब आराम करेंगे। "आराम नहीं करेंगे तो कल काम कैसे करेंगे।" आराम भी जरुरी है। थक गए हैं।

उसकी ये बात दिल के किसी कोने को गहरे से छू गयी और एक दर्द सा उभर आया। फ़िलहाल कैसे भी इंतजाम करके मैं घर पहुंचा किन्तु पूरे रास्ते और घर पहुँचने के बाद भी दिल में एक टीस सी उठती रही।

वैसे इस संसार में कई तरह के कार्य है। इनकी महत्ता, प्रकृति एवं कार्यशैली के अनुसार वेतन एवं कार्य के समय का निर्धारण होता है। सभी कार्य एक दूसरे से भिन्न है अतः इनकी आपस में तुलना भी संभव नहीं है। परंतु इतना तो तय है कि किसी कार्य की गुणवत्ता और उसके परिणाम , कार्य करने के तरीके , लगन, इंसान की काबिलियत, इनोवेटिव आईडिया और कितनी ऊर्जा जे साथ संपन्न किया गया है, पर निर्भर करती है। किन्तु यदि आप आराम ही न करें तो क्या ये ऊर्जा बरकरार रह पायेगी और जो लोग बौद्धिक स्तर पर कार्य सम्पादित करते हैं अगर हर वक़्त व्यस्त रहेंगे तो क्या कोई नया आईडिया दिमाग में आएगा। खेत में फसल तो तभी उगेगी जब खेत खाली हो और उसे नए बीज बोने के लिये तैयार किया जा सके।

अब रही काबिलियत की बात तो ये समझिये कि हर अच्छे पदों के लिए तगड़े कम्पटीशन क्लियर करने पड़ रहे हैं। तो निस्संदेह काबिलियत तो है। और भारतीय मानसिकता के अनुसार सरकारी नौकरियों से बेहतर कुछ भी नहीं है और सबसे ज्यादा कम्पटीशन भी यहीं है, तो एक तरह से काबिलियत भी यहाँ सबसे ज्यादा है।

तो फिर ऐसी क्या कमी है जो ये सरकारी विभाग इतने पिछड़े और दयनीय हालत में हैं। जैसा कि मैं स्वयं ऐसे ही एक बेहद आवश्यक सेवा प्रदान करने वाली लगभग सरकारी संस्था से जुड़ा हूँ और अनुभव करता हूँ कि इसके तीन प्रमुख कारण हैं-
1. भ्रष्टाचार
2. लचर प्रबंधन एवं तकनीकी
3. अव्यवस्थित मानव संसाधन प्रबंधन

जहाँ तक मेरा मानना है कि अमुक तीनों को अलग-2 देख पाना संभव नहीं है क्योंकि ये आपस में ही एक दूसरे से प्रभावित होते हैं या एक दूसरे का परिणाम होते हैं। किंतु तीनों पर विचार आवश्यक है।

ज्यादा गहराई में न जाते हुए केवल इतना कहना चाहूंगा कि पहले (विमुद्रीकरण) और दूसरे (डिजिटल कार्य प्रणाली) पर वर्तमान परिदृश्य में तो काफी बातें और कार्य हो रहे हैं किन्तु तीसरा (मानव संसाधन प्रबंधन) जो कि बेहद महत्वपूर्ण है, पर कोई नहीं सोच रहा।

किसी भी विभाग को अपने ऊपर पड़ रहे कार्य के बोझ के विषय में जरूर पता होता है और उसके लिए आवश्यक मानव संसाधन की जानकारी भी होती है। किंतु लचर प्रबंधन एवं भ्रष्टाचार के चलते इस विषय में कोई नहीं सोचता। परिणाम स्वरुप ऊल-जुलूल नीतियां बनती हैं और उनके संपादन हेतु उलटे-सीधे आदेश पारित होते हैं, जिनका सीधा असर क्षेत्र में कार्यरत अधिकारियों/कर्मचारियों पर पड़ता है। छुट्टियां रद्द होना, कार्यालय के कार्य का समय बढ़ाया जाना, समय का ध्यान रखे बिना किसी भी वक़्त रिपोर्ट मांगे जाना आदि जैसी घटनाएं घटित होती हैं। व्यक्ति ऑफिस के बाद घर पर है लेकिन दिमाग ऑफिस में रखा है। अंतहीन मानसिक दबाव........बढ़ते-2 ये दबाव इतना बढ़ जाता है कि व्यक्ति की सोचने , समझने और कार्य करने की क्षमता प्रायः खो सी जाती है। परिणाम स्वरुप कोई कार्य नहीं होता। होता है तो बस खानापूर्ति और झूठी रिपोर्टिंग। ज्यादा कुछ नहीं लिखूंगा। दर्द बहुत है दिल में। क्या-2 बयाँ करें।

अंत में इतना ही लिखूंगा कि रिक्शे वाला भी जानता है कि "आराम नहीं करेंगे तो काम कैसे करेंगे।" हम तो फिर भी इंटेलकटुअल्स में गिने जाते हैं!

सोचने वाली बात है.............. सोचिये।

पढ़-लिख कर हमने देखे थे, कई सपन सलोने।
अच्छी तनख्वाह होगी, घूमेंगे दुनिया के हर कोने।।

दौलत होगी, शोहरत होगी, होंगी खुशियां अपरंपार।
हर्षित पुलकित जीवन होगा और प्रफुल्लित घर परिवार।।

हाय किन्तु ये क्या कर बैठे, मत गयी थी मारी।
नींद छिन गयी, चैन छिन गया, छिन गयी खुशियाँ सारी।।

क्या थे , क्या बनना चाहते थे, और क्या आकर बन गए।
नहीं समय, बेहाल जिंदगी, उभरी माथे पर चिंता की रेखाएं।।

छूटा अपनों का साथ, टूटा हर एक सपना।
चौंक गए कल देखकर आईने में चेहरा अपना।।

खुद से केवल प्रश्न यही था, परेशां से लगते हो, कौन हो तुम?
पहले भी कहीं देखा है , जरा अपना परिचय तो दो तुम।।

रिक्शे वाले भैया की बात कर गयी अजब खेल।
कुछ तो समय दो खुद को, कर लो स्वयं से मेल।।

Saturday 3 December 2016

मेरी शाम - अब केवल एक इंतजार !

बहुत दिन हुए
देखे हुए !
व्याकुल मन,
अधीर चितवन !
नजरें खोजती हैं
उसको............!

पिछली दफा
बचपन में
मिले थे,
खेले थे उसके साथ।
बेहद नजदीकियां थी
हमारे दरमियाँ!

इंतेजार को उसके
घड़ियाँ बीतती ही न थी।
किन्तु मिलते ही उससे ,
समय को
पंख निकल आते !
पंखियों की तरह,
इनकी उम्र कम होती है।
पल भर में,
पलकों से ओझल !

नाराज़गी है कोई,
या बेवफाई !
शायद हुयी है कोई ,
गुस्ताख़ी मुझसे !
वो सामने हैं,
फिर भी दीदार नहीं होते ।
बेशक़ ख्वाहिशों के बोझ तले,
झुकी हैं मेरी आँखें !

दिल धड़कता है,
पाने को उसको ,
बैठने को उसके साथ ।
बातें जो करनी हैं ,
ढेर सारी !
न ख़त्म होने वाली।

उसके इंतजार में.............
अब तो उसके बिना ही ,
रात हो जाती है ।
कहाँ गए वो दिन ?
कहाँ हो तुम ?
हैं प्रश्न बहुत ,
पर नही कोई जवाब !

कहाँ हो तुम !
मेरी शाम .............
कहाँ हो तुम ?