Tuesday 31 December 2019
कौन देखेगा?
Friday 27 December 2019
कहानी लहरों की!
उम्मीद....!
इकतरफ़ा इश्क़!
अंधा प्यार...
Thursday 26 December 2019
मर्ज-ए-इश्क़!
कोई जल्दी नही...
Monday 9 December 2019
Thursday 28 November 2019
Tuesday 12 November 2019
बस तू ही तू ...
Sunday 27 October 2019
इस बार दिवाली ऐसी हो ...
Sunday 13 October 2019
परिचय!
सोचता हूँ तुम्हारे सवालों का क्या जवाब दूं ?
बेबुनियाद बातों को मैं क्यों बुनियाद दूं।
तहज़ीब के शहर से हूँ मैं
तहज़ीब ख़ूब रखता हूँ,
और अगर ज़्यादा दुष्टयी आयी तुमको,
तो मैं कान के नीचे भी ख़ूब रखता हूँ ।
मैं दुनिया से नही डरता बिलकुल,
केवल अपने ग़ुस्से से डरता हूँ ।
अपनों के सिलों से घायल हुवा हूँ,
न छेड़ मुझे, मैं बड़ी ज़ोर से काटता हूँ ।
ख़ुद की ख़ोज....
ख़ुद में ख़ुद की खोज को ख़ुद से ख़ुद ही दूर जा रहा हूँ मैं,
अब तो ख़ुद खुदा की खुदायी भी मुझे ख़ुद से मिला नही सकती ।
ख़ुद में ख़ुद को खोजता हूँ, तो बस तुमको ही पाता हूँ,
मैं ख़ुद में ख़ुद को कैसे पाऊँ, मैं तो बस तुझमें खोया हूँ ।
मेरा ख़ुद का कोई रंग नही पानी सी सीरत मैं रखता हूँ ,
चढ़ गया रंग तेरा और मैं मूर्ख इसमें ख़ुद को ढूँढता हूँ।
Saturday 5 October 2019
Thursday 26 September 2019
लैम्प पोस्ट ....
रात गहरी अंधेरी
नज़र से दूर चाँद
इन बादलों में कहीं
व्यस्त चाँदनी के साथ
और ,
मैं
अकेला
खड़ा हूँ तनहा
लैम्प पोस्ट के
खम्भे के पास.......
याद करता तुझको
हर साँस के साथ
ख़्यालों में कौंधता
तेरा चेहरा
बिजली की हर
चमक के साथ !
मैं
अकेला
हो रहा बेचैन
लैम्प पोस्ट के
खम्भे के पास.......
बारिश भी आ गयी
रिमझिम फुहारों के साथ
कानों में फुसफुसाती
बारिश की आवाज़
सुनाती मुझको
अपनी कहानी!
मैं
अकेला
खड़ा सुनता रहा
लैम्प पोस्ट के
खम्भे के पास.......
मैं भी तो जलता हूँ
इस लैंप पोस्ट की तरह
खुद का अंधेरा समेटे
दूसरों को रोशनी दे रहा
तू बगल में खड़ी अब
मुस्कुराती क्यों नही?
मैं
अकेला
भीतर के अंधेर को मिटाता
लैम्प पोस्ट के
खम्भे के पास.......
काश! शायद ! और न जाने
कितने शब्दों में
मैं कुछ मांगता हूं
हमेशा की तरह
तुम आ क्यों नही जाते
कुछ ढूंढते हुए!
मैं
अकेला
राह निहारता
लैम्प पोस्ट के
खम्भे के पास.......
Tuesday 17 September 2019
मुफ़लिसी...
अब अपने डर को हम
ज़ाहिर भी करें तो कैसे
सही ग़लत में उलझ जाते हैं
बस हम आदमी आम है।
होठों तक आयी थी,
न मालूम क्यूँ छोड़ दी,
लो कह दिया नही पीते,
हमारे में शराब हराम है।
बड़े क़रीने से छुपा जाते हैं,
मुफ़लिसी की लकीरों को,
महफ़िलों में अब नहीं जाते,
कह देते हैं कुछ ज़रूरी काम है।
तंगी तो देखो हमारी इस क़दर है,
खड़े हम बाज़ार के बीचों बीच में हैं,
भूख-प्यास से बेहाल पर हालात नाज़ुक,
बोल दिए क्या खाएँ, आज तबियत नासाज़ है।
Sunday 15 September 2019
Happy Engineers day...
I am an engineer too.....
Not destined
Always confused
Doing regret
For all decisions
Yes.....
I am an engineer too.
40 subjects
8 semesters
Many viva
Few backs
Yes.....
I am an engineer too.
High dreams
Zero focus
Cleared degree
But unskilled
Yes.....
I am an engineer too.
Great campus
Few girls
Young heart
One side love
Yes.....
I am an engineer too.
Few crazy guys
One great gang
Lived together
Moments like ages
Yes.....
I am an engineer too.
Have nothing
But full confidence
Need ignition
To reach moon
Yes.....
I am an engineer too.
Don’t ask
What we do
Can do anything
Except engineering
Yes.....
I am an engineer too.
Saturday 14 September 2019
हिन्दी...
हिन्दी दिवस पर क्या लिखूँ
हिन्दी में ही तो लिखता हूँ
हिन्दी को मनाऊँ कैसे
मैं हिन्दी से परे कब हूँ।
हिन्दी उच्चारण
हिन्दी आचरण
हिन्दी से हो
सभी दर्द निवारण।
हिन्दी में करते बात
मेरे ये दो नयन
प्रेम हो विरह हो
चाहे हो तुमसे मिलन।
हँसना-रोना
रूठना - मानना
ख़ुशी या फिर ग़ुस्सा होना
है तो सब हिन्दी ही।
तेरा रूप सुनहरा हिन्दी
तेरी आँखें काली हिन्दी
माथे पर वो बिंदी हिन्दी
उलझे हुए बालों में हिन्दी।
तुझको लिखी चिट्ठी हिन्दी
न मिला जो जवाब हिन्दी
तुम भूल गए तो हिन्दी
मुझे याद आए तो हिन्दी।
मुझमें हिन्दी
मुझसे हिन्दी
मैं जिससे निर्मित
वो है हिन्दी।
मेरे लिए तो
सभी दिवस है हिन्दी।
Tuesday 10 September 2019
इकतरफ़ा इश्क़...
मत पूंछ वो लम्हा जब सब महफ़िल से चलने को हुए थे,
तेरी एक झलक पाने को किसी ने मुड़कर हज़ार बार देखा था।
तुम मंज़िलों की खोज में गौर नही कर पाए,
और किसी ने गौर करते-२ तुझमें अपनी मंज़िल ढूंढ़ ली थी।
तुम सुलझाते रहे उलझने जीवन की इस कदर,
और किसी ने तुम्हारे उलझे बालों में सुलझनें ढूंढ ली थी।
हर कदम पर तेरे बगल में एक शख्श खड़ा तुझे देखता रहा,
तुम चीजों में खुशी ढूढ़ते रहे और किसी ने तुझ में खुशी ढूंढ ली थी।
तुमने यूँ ही राह में चलते-2 संभलने को हाथ पकड़ लिए थे,
तुम हमसफर थे पल भर के और किसी ने गुस्ताख़ी उम्र भर की कर ली थी।
वैसे तो भरोसा खूब है इन रेलों पर कि कुछ पल और मिल जाएंगे,
मगर तेरी ट्रैन के समय से आने पर किसी को नाराज़गी बहुत हो रही थी।
तेरी बक-बक भी बहुत खास हुआ करती थी उसके लिए ,
तुम्हारे होठों पर आ गया किसी गैर का नाम और किसी ने अपने होंठ सिल लिए थे।
चाहत थी संग उड़ने की मगर वो अपनी हाथों की लकीरों में कैद जो ठहरा,
कत्ल करने को खुद को किसी ने खुद से दुश्मनी कर ली थी।
Friday 6 September 2019
दौर...
मेरी ख़ामोशी का वो ग़लत मतलब निकाल बैठे,
हमारी शराफ़त और तरीक़ों को कमज़ोरी समझ बैठे।
माना कि वो दौर उनका था और वो माहिर हैं इस खेल के,
मगर समझा लें वो ख़ुद को कि हम खिलाड़ी हैं इस दौर के।
पर्दा तो अभी उठा ही है यारों और मंच सज़ा है अभी,
उनसे कह दो सब्र रखें खेल तो बस शुरू हुआ है अभी।
पृथ्वी, चाँद, और मंगल से भी आगे हम पहुचें हैं अब,
तुम्हारे पुराने तरीक़ों को कह चुके हैं हम अलविदा अब।
कह कर हमें नौसिखिया तुम अपनी खिसियाहट छुपाते हो,
कौन पूछता है अब तुम्हें, छोड़ दो, तुम किसे उल्लू बनाते हो।
बैठो दर्शक दीर्घा में अब तुम केवल कुर्सी की शोभा बढ़ाओ,
ग्रहण करो अभिवादन हमारा और इज़्ज़त से अपने घर जाओ।
ये दौर यूँ ही नही बदलते, बहुत कुछ भूलना होता है इन्हें भी!
पल-२ की ख़बर कैसे रखते ये, जीना होता है सदियाँ इन्हें भी।
Saturday 31 August 2019
ख्यालों-बेख़यालों में....
रात की इस बेख़याली में इक ख़्याल ऐसा आ जाए....
बंद आँखों में नींद आए न आए, बस चेहरा तेरा आ जाए ।
इस लम्बी और सुनसान सड़क पर इक मोड़ ऐसा आ जाए....
घूमने को जब भी मैं तनहा निकलूँ और तुझसे मुलाक़ात हो जाए ।
ज़िंदगी तो काटनी ही है, कट रही है और कट ही जाएगी....
अगर तेरे साथ कट जाए तो बस जीने में मज़ा ही आ जाए ।
रंगों को बदलते ख़ूब देखा है और धोखे भी हमने हज़ार खाए....
इक साथ तेरा सच्चा था अब और किस पर भरोसा किया जाए।
खुदा करे काश कि इन ग़ैरों में कोई अपना नज़र आ जाए....
चेहरों की इस बेतहाशा भीड़ में चेहरा तेरा नज़र आ जाए ।
आओ मिलकर इन घड़ी की सुइयों को उलटा घुमाया जाए....
आगे तो जुदाई है कि उस पुराने हसीन दौर में फिर से वापस चला जाए ।
Friday 23 August 2019
कशमकश !
आज सुबह उठा तो फिर एक अफ़सोस के साथ,
कुछ याद नही, न जाने किस नशे में गुज़र गयी कल की शाम भी !
एक हम है जो दिल के ज़रा मासूम हैं ,
चालाकी तो सीखी लेकिन, दुनियादारी में कल हम फिर पीछे रह गए !
मिलना जुलना तो एक आम बात होती थी पहले,
उनका यूँ मुस्कुराना आम तो नही, कल की मुलाक़ात के मायने हज़ार होंगे !
रोज़ कुछ नया सीखने की ख़्वाहिश रखता हूँ,
मैं हार जाता हूँ फिर भी, खेल पुराना ये और इसमें पैंतरे अधिक है ।
मदद को लोग साथ हज़ार हैं मेरे,
हाथ जुड़ते नही मेरे, और लोग मुझसे ख़्वाहिशें ख़ूब रखते हैं !
कई बार गिरा हूँ मैं इस दौड़ में,
मैं डूबता हूँ क्यूँकि ज़िंदा हूँ, लाश होता तो ये नौबत ही न आती।
बस ये कहकर मैं ख़ुद को थाम लेता हूँ,
तू पीछे ही सही पर कोई ग़म नही, तेरे तो ख़ुद के नाम में आनन्द बहुत है ।
Friday 16 August 2019
बात वही...
दौर बदला, सोच बदली ,
आनन्द वही, बस परिस्थितियाँ बदलीं।
तासीर वही, मिज़ाज नए ,
कहानी वही, बस काग़ज़ नए।
भीड़ नयी, जगह नयी,
लेकर चले, सभी दोस्त पुराने वही।
रास्ते नापे, मंज़िलें भी पायी,
आँखों में लेकिन, पुराने सपने वही।
इजाज़त हो, तो कह दूँ,
दिल में दबी, पुरानी बात वही।
Friday 9 August 2019
आज तक...
सड़क सी है ये जिंदगी अपनी,
न जाने कितनों से वास्ता आज तक।
गुजरती भीड़ हज़ारों की मगर,
सड़क फिर भी तन्हा है आज तक।
बीती इस उम्र में न जाने,
मुलाकात कितनों से हुयी आज तक।
जीवन के इस सफर में बहुत मिले
पल-पल के हमसफ़र आज तक।
काम जब तक, ये साथ तब तक,
मतलबों के सब साथी आज तक।
अब तो बहरूपिया शब्द बेमतलब है
न जाने कितने रूप लिए आज तक।
तुम जो मिले चेहरे पर लेकर मुस्कान,
देखी नही ऐसी चासनी आज तक।
सामने तुम थी और हाथों में ट्रे चाय की थी,
रिश्ता ऐसा जुड़ा कि ऐसा फेविकॉल नही बना आज तक।
तन्हाई की क्या बिसात थी तुम्हारे आने के बाद,
पल भर सोचने को भी नही मिला आज तक।
बेमतलब लड़ाइयों का सिलसिला जो चला,
खुदा कसम, बदस्तूर जारी है आज तक।
एक लखनवी की लव स्टोरी.....
वो इमामबाड़ा ही तो था जहां तुझसे नैन मिलें थे,
भूल भुलैया की दीवारों में हम दुनिया भूल गए थे।
सूरत तेरी आंखों में लेकर फिर तुझे ढूढ़ने निकले थे ,
चौक चौराहे से लेकर चूड़ी वाली गली तक खूब भटके थे।
लखनऊ यूनिवर्सिटी से लेकर शिया कॉलेज तक हर सड़क छानी थी,
इस चक्कर में दोस्तों को शर्मा की न जाने कितनी चाय पिलाई थी।
मुलाकात की उम्मीद में हमने नज़राना खरीद लिया था,
इस चक्कर में अमीनाबाद की तंग गलियों को हमने नाप लिया था।
बालाघाट से लेकर यहिया गंज तक हर गली को हमने नापा था,
छतर मंजिल, रेजीडेंसी और ग्लोब पार्क,उन दिनों अपना यही ठिकाना था।
केसरबाग़ चौराहे से निकले हर रास्ते को देख चुके थे ,
इरादे बहुत मजबूत थे पर अब हम उम्मीद खो चुके थे।
थक हार कर, यारों को लेकर उस शाम हम कुड़िया घाट पर थे,
कुछ मोहतरमाओं की टोली के संग तुम भी वहां मौजूद थे।
दिल की धड़कन बढ़ गयी थी न जाने कैसा जादू था,
थाम लिया था हाथ तेरा, मेरा खुद पर न कोई काबू था।
एक तरफ़ा प्यार की तुमको न कोई खबर थी ,
और हम भी बौड़म थे जो ये गुस्ताखी करी थी।
घबराकर तुमने शोर मचाया और फिर पुलिस चली आई थी,
और फिर हमने पूरी रात ठाकुरगंज थाने में बिताई थी।
थाने आने का हमको कोई नही गिला था,
मार तो पड़ी किंतु तेरे घर का पता वहीं चला था।
फिर तो मिलने मिलाने का सिलसिला जो शुरू हुआ था,
साहू सिनेमा से लेकर हज़रत दरबार तक प्यार हमारा जवाँ हुआ था।
हाथों में हाथ लिए नीम्बू पार्क से लेकर चिड़िया घर तक घूमे थे,
यामाहा पर मेरी बैठ कर इक दूजे को हम महसूस किए थे।
दिलों की बेक़रारी को करार पहुचाने हम कुकरैल पार्क पहुँचे थे,
प्यार को परवान चढ़ाने हम इंदिरा डैम पहुचे थे।
आगे के अंजाम को लेकर तुम बेहद घबराए थे ,
इस कहानी के परिणाम को लेकर बेहद सकुचाए थे।
न घबराओ तुम कि हमारे मिलन का ये लखनऊ गवाह है ,
ये प्यार तब तक जवान रहेगा जब तक गोमती में प्रवाह है।
Friday 2 August 2019
नामकरण... (नवीन)
महत्वपूर्ण एक समान ये तुमको स्मरण हो।
बाद में आये हो किन्तु किरदार अद्वितीय हो।
तुम्हारी हर इच्छा अनिच्छा का ख्याल हम करेंगे।
जतन खूब किए किसी का प्रभाव न पड़ने के लिए।
मशक्कत करनी पड़ी उनके प्रभाव को कम करने के लिए।
साथ सदैव रहे तुम्हारे साथ निलिन्द के यथार्थ का।
झुकना कभी मत ये याद रहे, ईश्वर तुम्हारा उन्नयन करें।
Saturday 20 July 2019
बातें..(कही-अनकही!)
जुबाँ से कैसे बयाँ करें हम इशारों की बातें !
बहुत कम में बहुत कुछ कहना है जो मुझे .........
बहुत कुछ हमने कहा दिया तुमको!
काश तुम न कहा हुआ भी समझ पाते........
हमारी हरकतों ने बयाँ कर दी थी कहानी पूरी!
काश तुम मेरे दिल की बेचैनियां समझ पाते........
दौर था, निकल गया और अब न वापस आएगा!
काश! उस दौर की तुम कीमत समझ पाते........
ज़िन्दगी और सफलता
खाद्य ऋंखला पिरामिड सिखलाती जीवन का आधार,
छोटा या बड़ा, हर कोई यहाँ पर है एक दूजे का आहार,
यदि बढ़ना हैं ज़िंदगी में आगे और छूना ऊँचाइयों को,
पैनी नज़र, शातिर दिमाग़ और सीखना होगा करना शिकार।
एहसास और शब्द!
एहसास कोमल होते हैं और शब्द निष्ठुर.......
इसीलिए प्रेम में ज़ुबान का कम और आँखों का अत्यधिक इस्तेमाल किया जाता है।
ज़ुबान को रख ख़ामोश तू आँखों से बातें कर
प्यार के इज़हार की यही एक माक़ूल अदा होती है।
आज के दौर में इश्क़...
दौर ए जमाँ बदल रहा है
हर इंसाँ बदल रहा है
कौन कितना बड़ा बहरूपिया
कम्पटीशन चल रहा है।
चोरी से की जाने वाली
चीज़ों का डिस्पले चल रहा है
अब और नया क्या करें
इस पर विचार चल रहा है।
प्रेम जैसी चीज़ का
फ़ैशन चल रहा है
और प्रेम है किधर
इस पर रिसर्च चल रहा है।
मुहब्बत पर नए तरीक़े से
जमकर प्रयोग चल रहा है
इश्क़ करने के तरीक़ों का
क़ारोबार चल रहा है।
रचाए ढेरों स्वाँग हमने
देखो रंगा पुता जिस्म चल रहा है
पैदा कर दे दिलों में लालसा
छलकता हुवा जवानी का पैमाना चल रहा है।
आज़माए हर तरीक़े पर
न कोई संतोष मिल रहा है
पाने को प्रेम इस जहाँ में
हर इंसाँ नंगा चल रहा है।
दुनियादारी और तुम !
तुम मिलो तो कुछ और बातें किया करो,
दुनियादारी तो हम औरों से भी कर लिया करते हैं .....
तज़ुर्बा ए ज़िन्दगी...
हिम्मत और जोश बनाए रखें दौड़ ए ज़िंदगी में
कुछ हासिल हो न हो, तज़ुर्बे ख़ूब मिलते हैं ।
जीत और हार की मत सोच बस कोशिशें करता रह
ख़ुद को घिस-घिस कर तू अपनी धार तीखी करता रह ।
गर्दिश और फ़तह में बस इक महीन सा अंतर है,
फ़र्श से अर्श तक पहुचने में बस कोशिशों के तरीक़े का अंतर है।
क़िस्मत और मेहनत तो ज़रूरी है ज़िंदगी में जीतने के लिए लेकिन
किसी कहानी का क्या होगा अंजाम बस तज़ुर्बे तय करते हैं ।
गुफ़्तगू खुद से....
ज़िंदगी अगर तुझे समझ कर जीते
तो फिर क्या ख़ाक जीते !
मज़ा तो ग़लतियाँ करने में था
हर पल को दिल से जीने में था !
माना कि ग़लतियाँ हज़ार हुयीं हमसे
सुनाने को कहानियाँ ख़ूब मिली इनसे !
क्या बताऊँ दिलों के खेल में दर्द ख़ूब मिले
छाया था ऐसा नशा जो न बोतलों में मिले!
ज़हर ख़ूब था हममें औरों का असर क्या होता
नशा ख़ुद का था हममें, शराब का असर क्या होता !
Monday 8 July 2019
मुलाकात (पाती....... प्रेम की -2)
मैसेज में था-
हर्ष के चेहरे पर मुस्कान आ गयी। मिनटों में वो स्कूल के दिनों में पहुंच गया। कोचिंग क्लास में ही तो पहली बार देखा था हर्ष ने उसे। सिंपल सलवार सूट में वो गज़ब की प्यारी लग रही थी। कुछ अलग ही था उसमे। पहली नज़र में ही हर्ष पागल हो चुका था। सपने भी देखता तो कौतुकी के। कोचिंग समय से पहले पहुंचने की वजह थी कौतुकी ताकि कोई भी पल व्यर्थ न जाये। क्लास चालू होने से ख़त्म होने तक हर्ष कौतुकी को ही देखता और क्लास ख़त्म होने के बाद भी गाहे - बगाहे क्लास से निकलते वक़्त उसके बगल से गुजरने या उसे छूने का भरसक प्रयास करता लेकिन डर की वजह से दिल की धड़कन बढ़ जाती और क्लास के पूरे समय में बनाया हुआ यह प्लान व्यर्थ चला जाता। जिस दिन कौतुकी कोचिंग नहीं आती उस दिन तो मानो समय कटता ही नहीं। यह सिलसिला जो क्लास नवीं में चालू हुवा वह बारहवीं तक चला। और परिणाम वही ढाक के तीन पात।
उस दौर में मोबाइल फ़ोन प्रचलन में आना शुरू ही हुए थे और बहुत भोकाली और रईस लोगों के पास हुवा करता था। ले दे के लैंड लाइन ही हुवा करता था। उसकी ऐंठन भी अलग। बड़ी मुश्किल से कौतुकी के घर के लैंड लाइन का नंबर निकाला गया और हिम्मत करके फ़ोन भी लगाया गया पर बात करने की हिम्मत नहीं हुयी। इतना ही नहीं - साइकिल लेकर कौतुकी के घर के बगल से भी निकला गया लेकिन क्या मजाल जो कौतुकी के घर की तरफ नज़र घुमा लेते। घर के पास पहुँचने तक घबराहट इतनी बढ़ चुकी होती थी की नज़र दूसरी तरफ कर लेते कि कहीं गलती से कौतुकी घर के बहार न मिल जाये और नज़रें मिल जाये। फिर क्या घर के सामने से गुज़रते हुए नज़र दूसरी तरफ, जैसे हम तो बस यूँ ही घूमने निकले हों और कौन कौतुकी और कौन कौतुकी का घर। चेहरे पर ऐसे भाव जैसे ये रास्ता तो सामान्य रास्ता है और हम यहाँ से रोज़ गुज़रते हों।
बारहवीं के बाद हर्ष इंजीनियरिंग करने चला गया। वहां से भी कई बार फ़ोन पर बात करने की कोशिश की गयी। पर सोचता कि क्या बात करेगा। क्या सोचेगी वो। इसका भी हल निकाला गया कि बोल दूंगा की सीनियर रैगिंग कर रहे हैं और एक लड़की को फ़ोन लगाने को बोले हैं वरना खैर नहीं, इसलिए डर के मारे फ़ोन करना पड़ा। खुश तो बहुत थे। प्लान फुलप्रूफ था। हिम्मत की और एक दोस्त का फ़ोन लिया। रिलायंस का cdma फ़ोन। उस उम्र के लोग अच्छे से समझेंगे की रिलायंस का cdma क्या चीज होती थी। खैर, फ़ोन लगाया गया ... घंटी बजी। प्रत्येक घंटी के साथ दिल की धड़कने बढ़ती जा रही थी। फ़ोन उठने तक तो पैर भी काँपने लगे।
कॉल पिक हुयी.......
हेलो.....
हर्ष-हेलो
कौन!
हर्ष - हेलो
अरे आप बोलेंगे भी!
हर्ष - जी! राहुल से बात हो जाएगी।
कौन राहुल ?
हर्ष- जी ये राहुल का घर है न ?
जी नहीं।
हर्ष - अक्कछ्ह। अच्छा सॉरी।
और फ़ोन कट।
बस ये पहली और आखिरी कॉल थी हर्ष की कौतुकी को। इस घटना का अपराध बोध या फिर डर हर्ष के दिल में ऐसा छाया कि उसने कौतुकी से बात करने के विषय में सोचा भी नहीं। इतना डर - किस चीज का। ये हर्ष को आज तक नहीं पता चला। शायद वो ऐसा ही था।
इंजीनियरिंग ख़त्म होने को थी। समय बड़ी तेजी से निकल गया। इस बीच में शायद ही हर्ष ने कौतुकी को याद किया हो। चूँकि उस दौर में सोशल नेटवर्किंग का प्रचलन उतना अधिक नहीं था और थोड़ा बहुत ही प्रयोग में था। फ़ोन पर फेसबुक का प्रयोग अति स्मार्ट लोग ही किया करते थे। चूँकि हर्ष इंजीनियरिंग का विद्यार्थी था तो यो (YO ) तो उसे होना ही था। प्लेसमेंट का दौर चल रहा था। हर्ष इंटरव्यू के लिए तैयार होकर प्लेसमेंट सेल को भागा जा रहा था। तभी उसके मोबाइल पर एक टोन बजी। उसने देखा तो फेसबुक नोटिफिकेशन था। मैसेज था।
हेलो ! तुम हर्ष हो न !
हर्ष- ध्यान से देखा तो ये तो एक लड़की का मैसेज था। रिसर्च हुयी। अरे वाह ! ये तो कौतुकी थी। हेलो - तुम कौतुकी हो न !
अरे वाह ! तुम तो पहचान गए ! मुझे लगा कि भूल गए होगे।
हर्ष- ख़ुशी छिपाते हुए , अरे ! बचपन के दोस्तों को कोई भूलता भी है क्या।
दोस्त ! कैसे दोस्त ? हमने तो कभी बात भी नहीं की।
हर्ष- हाँ। (झेंपते हुए ) तुम्हारी बात भी सही है।
अरे छोड़ो ये सब। मैं भी क्या ले के बैठ गयी। सुना है इंजीनियर बन गए हो ! बड़े आदमी बन गए हो। मुझे तो लगा कि पहचानोगे नहीं। फेसबुक पर देखा तो कोचिंग की याद आ गयी। इसीलिए बात कर लिया।
हर्ष- अच्छा किया ! और तुम्हे कोई क्यों नहीं पहचानेगा भाई। तुम तो........
तुम तो क्या ?
हर्ष- अरे छोड़ो भी ! और बताओ। कैसे हो ? कहाँ हो आजकल ?
मैं बेंगलुरु में हूँ। ओफिस में।
हर्ष- अच्छा ! ऑफिस ! अरे वाह। बड़े बड़े लोग!
अच्छा हर्ष तुमसे शाम में बात करुँगी। अभी थोड़ा काम निपटा लूँ।
और फिर हर्ष ने फ़ोन को जेब में रखा और प्लेसमेंट सेल की ओर भागा।(हर्ष आज बहुत खुश था और शाम को लेकर उत्साहित। )
फिर क्या। बातें चालू हुयी। दोस्ती हुयी और फिर प्यार भी हुआ। इस बीच हर्ष की जॉब भी लग चुकी थी। दिल्ली में। कौतुकी अभी भी बेंगलुरु में थी। मौका मिलने पर एक दूसरे के शहर आना जाना और मिलना जुलना होता रहता। सामान्य मीटिंग, ज्यादा कुछ नहीं। कई बार हर्ष ने आगे बढ़कर शादी जैसे महत्वपूर्ण निर्णय के बारे में भी सोचा। पर हिम्मत न कर पाया। कौतुकी ज्यादा हिम्मत वाली निकली। उसने कई बार अपने दिल की बात खुलकर कही किन्तु हर्ष हिम्मत नहीं दिखा पाया।
समय बीतता गया और फिर एक दिन कौतुकी ने हर्ष को अपनी शादी तय होने की खबर हर्ष को दी।
उस रात हर्ष सो नहीं पाया था। रात भर सही-गलत के उधेड़ बुन में पड़ा रहा था। कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। और अंत में कदम पीछे खींच लिए गए थे। इसके लिए सामाजिक ताना-बाना किसी हद तक जिम्मेदार था। दोनों समझदार थे। उसके बाद कभी बात नहीं हुयी। सोशल नेटवर्किंग का दौर चरम पर पहुँच चुका था अब। तो सारी जानकारी मिलती रहती थी।
और आज इतने दिनों बाद कौतुकी का मैसेज और मिलने के लिए बोलना सारी पुरानी यादों को ताजा कर गया। हर्ष ने मिलने को लेकर दुनिया भर के ख्याल बुन डाले। और इस मुलाकात को यादगार बनाने के लिए एक निशानी भी खरीद ली।(निशानी के बारे में फिर कभी )
शुक्रवार का दिन। हर्ष भी एकदम तैयार होकर निकला, किन्तु किसी वजह से कौतुकी को लेट हो गया। पूरा दिन मन मसोस कर हर्ष ऑफिस में ही बैठा रहा और कौतुकी के फ़ोन का इंतजार करता रहा। शाम पांच बजे कौतुकी का फ़ोन आया। कौतुकी ने जगह बता दी और आने को बोला। हर्ष ने भी आनन फानन में कार उठायी और चल पड़ा। तय जगह पर कौतुकी इंतजार कर रही थी। काली साड़ी - वाह ! क्या बात ! हर्ष के मन में कई ख्याल एक साथ जग गए। बला की खूबसूरत लग रही थी कौतुकी।
कार में आकर कौतुकी ने हर्ष को मुस्कुरा कर देखा। और ! कैसे हो !
हर्ष- बढ़िया। और तुम ?
मैं भी बढ़िया।
हर्ष - फिर ! क्या प्लान है ?
कुछ नहीं। बस गाड़ी चलाते रहो।
मतलब ! अरे कहीं तो चलना होगा ! कहीं चलते हैं ! आराम से बैठेंगे ! डिनर करेंगे। बातें भी हो जाएँगी !
नहीं। कुछ नहीं। बस गाड़ी चलाते रहो। मुझे कहीं नहीं जाना। इसी गाड़ी में बात कर लेंगे।
हर्ष को कुछ भी समझ नहीं आया और वह चुपचाप गाडी चलाता रहा।
तीन घंटे की ड्राइविंग में ढेरों बातें हुयी। दोनों ही मैच्योर हो चुके थे। न कोई शिकवा - न कोई शिकायत। जिंदगी को लेकर ढेरों बातें। क्या थे और क्या हो गए। जिंदगी कितनी तेज बीत रही है! लाइफ को लेकर क्या प्लान है। आगे ये करना है - वो करना है ! जॉब स्विच करनी है। घर लेना है इत्यादि ! इतनी फॉर्मल मुलाकात ! हर्ष ने जितना सब कुछ सोचा था कि मिलेंगे तो ये कहेंगे वो कहेंगे ! ये करेंगे वो करेंगे ! लेकिन ऐसा कुछ सोचने या करने का मौका नहीं मिला। दिल की बातों को हर्ष दिल में ही दबा गया।
समय हो चुका था। कौतुकी को निकलना भी था। हर्ष ने कौतुकी को बेमन से उसके बताये हुए जगह पर छोड़ दिया। पर ये क्या ! जाते -२ कौतुकी ने हर्ष को जोर से गले लगा लिया। हर्ष चौंक गया। ( वैसे चाह तो हर्ष भी यही रहा था लेकिन कौतुकी के फॉर्मल से व्यवहार को देखकर उसने अपनी इच्छा को दबा लिया था। ) हर्ष ने भी कौतुकी को कस लिया। कुछ सेकण्ड्स के बाद कौतुकी ने खुद को छुड़ाते हुए कहा - अच्छा तो अब जाओ ! फिर मिलेंगे !
तभी हर्ष को याद आया कि इस मुलाकात को यादगार बनाने के लिए वो एक निशानी लाया है। उसने तुरंत कार से वो चीज निकाली और कौतुकी को देते हुए बोला - सोचा तो था कि तुम्हे खुद पहनाउंगा किन्तु मौका ही नहीं मिला। अब इसे रख लो और खुद पहन लेना। और मुझे पिक्चर भेज देना। कौतुकी बोली - ठीक है ! अब जाओ।
लौटते समय हर्ष कार में आज की मुलाकात को लेकर मुस्कुरा रहा था। दोनों के दिलों में एक-दूसरे के लिए जो आग थी वो अब भी बाकी थी किन्तु दुनियादारी की राख ने उसे पूरा ढक लिया है। जो दिखती तो नहीं है किन्तु दहक रही है। इसी दहक की आंच को ही दोनों ने एक-दूसरे को गले लगने के दौरान महसूस किया और एक साधारण सी मुलाकात को असाधारण और यादगार मुलाकात में बदल दिया।
हर्ष का मन बस यही गुनगुना रहा था -
ये सपना तो नहीं कहीं कोई काटो चुटकी मुझे
इतने नज़दीक हैं वो मेरे कि कोई सम्हालो मुझे
कैसे रखूँ क़ाबू में ख़ुद को चढ़ रहा नशा मुझे ।
कैसे बढ़ूँ उसकी ओर कि लगता डर मुझको
आँखें ये ठहरती ही नहीं कि लगती चौंध मुझको
उनका आफ़तबी चेहरा कर रहा रोशन मुझको ।
क़ैद कर लूँ उन्हें अपनी आँखों में न जाने पाए वो कहीं
थाम लो दिल की धड़कनो को बनो बेसब्र नहीं
वो आएँ हैं मिलने क्या इतना ही काफ़ी नहीं ।
नैनों से लिख रही हो इबारत कि बन रही है कहानी नयी
लगायी है तुमने जो आग कि वो अब बुझेगी नहीं
कलमबंद कर लूँ इन्हें कि ये कोई आम मुलाकात नहीं।
Thursday 4 July 2019
मासूमियत-एक हथियार!
मासूमियत मासूम न रही,
किसी हथियार से कम न रही।
होता इसका बख़ूबी इस्त्माल,
करने को क़त्ल सरे आम।
शौक़ हमने भी रखा,
हथियारों के ज़ख़ीरे का,
डिस्प्ले में नित बढ़ता रहा,
हथियार नए क़रीने का।
आज यूँ ही ख्याल आया,
सुना बाज़ार में नया हथियार आया।
चलो हथियारों के दुकान पर चला जाय,
चलो वो वाला नया हथियार लाया जाय।
ज्यूँ ही हमने दुकान पर क़दम रखा,
दुकान वाले ने एक तगड़ा सलाम ठोंका।
कुछ पूँछता उससे पहले मेरी नज़र उस पर पड़ी
सबसे महँगे हथियरों में मासूमियत ही मिली।
चेहरे....
चेहरों के इस संसार में बस एक चेहरा ढूढ़ता हूँ,
चेहरे पर न हो कोई और चेहरा, वो चेहरा ढूंढता हूँ।
चेहरों के इस बाज़ार में चेहरे सभी रंग बिरंगे हैं,
रंग बिरंगे इन चेहरों में मैं एक रंग पक्का ढूढ़ता हूँ।
तासीर मेरी पानी सी मैं रूप बड़ा बेजोड़ रखता हूँ,
ढल जाता हर रूप में, मैं रुख लचीला बहुत रखता हूँ।
वो कहते हैं कि आनन्द तू चेहरे पर मुस्कान बहुत रखता है,
क्या बताऊँ कि मैं दर्द को दवा में बदलने का हुनर खूब रखता हूँ।
Wednesday 3 July 2019
क्या खोया-क्या पाया!
इतनी भाग दौड़ के बाद बस यही नतीजा निकला,
न कभी फ़ुर्सत मिली और न ही कोई काम निकला !
ज़िंदगी तुझे तो हम कभी समझ ही न सके,
उलझनों को सुलझाते रहे पर न कोई हल निकला !
जब भी हमको लगा तुझे पहचानने लगे हम,
जब जब पर्दा उठा तब तब चेहरा नया निकला !
आरज़ू थी कि एक शाम होगी और तेरा साथ होगा,
इंतज़ार में हो गयी रात न जाने कब ये दिन निकला !
ये तो कुछ शब्द हैं जो निभा रहे हैं तेरा साथ,
वरना दुनिया की इस भीड़ में आनंद तू तो बेहद अकेला निकला !
क्या फायदा!
अब गुस्सा करना छोड़ दिया मैने......
किस बात से फर्क पड़ता है, ये बताने से क्या फायदा!
अब कोशिशें नहीं करता मैं......
जो अपना नही है, उसे समझाने से क्या फायदा!
तीर तो कई हैं तरकश में मेरे.....
जब हारना अपनों से है, तो चलाकर क्या फायदा!
मेरी खामोशी को मेरी कमज़ोरी समझते हैं.....
खो चुके है वो मुझको, अब उन्हें बताकर भी क्या फायदा!
ये रात यूँ ही बेलज्जत बीत रही है......
उनके आने की कोई खबर नही, इंतज़ार का क्या फायदा!
जिंदगी गुजर रही है न जाने किस नशे में......
किधर जाना नही है पता, अब होश में आने का क्या फायदा!
पीना-पिलाना!
ये पीना पिलाना,
कभी बहुत नही होता,
ज़िंदगी ही एक नशा है,
इसमें कोई होश में नही होता।
मौत की क्या बात करनी,
वो तो आनी ही है,
कश्ती अगर धाराओं के संग
चली तो क्या नयी कहानी है।
हौसलों को ऊँचा रखो,
सिर्फ़ बातों से कुछ नही होता ,
मेरी मानो तो नशा भरपूर रखो,
होश में कुछ भी नही होता।
लेख़क!
कुछ ख़्वाहिशें दबीं थी दिल में जो किसी को बता न सके,
ओढ़ कर चेहरा एक लेखक का खोल दिए राज काग़ज़ों पे।
उम्र का फ़लसफ़ा...
सुबह से शाम हो रही है ,
ये उम्र बस यूँ गुज़र रही है,
कहने को तो सब कुछ है मेरे पास,
न जाने फिर क्यूँ ये शाम तन्हा गुज़र रही है।
ज़िन्दगी किताबी जी रहा हूँ मैं,
सफर एक सुहाना तय कर रहा हूँ मैं,
देखा जाए तो रोमांच कम नही है लेकिन,
लगता है बेमतलब में उम्र तमाम कर रहा हूँ मैं।
ख्वाहिशों का बोझ इतना बढ़ा लिया मैनें,
देखे हुए सभी सपनों को दबा दिया मैंने,
जरूरतों को पूरा करने में दौड़ इतनी बढ़ी कि,
पिछले चंद सालों में खुद को अकेला कर लिया मैने।
रुको, ठहर जाओ, लो एक लंबी और गहरी सांस,
झाँको खुद के अंदर और करो अपनी संगत का एहसास,
साथ बिताओ कुछ पल अपने और अपनों के साथ,
जिंदगी जीने का मजा तब, जब चलो लेकर हाथों में हाथ।
ज़िंदगी...
ज़िंदगी हमने चखी
लेकर ढेरों स्वाद
जी भर जिया
न होने दिया बर्बाद।
नही किया अफ़सोस
क्या खोया क्या पाया
बदल कर रंग हर मंच पर
हमने हर किरदार निभाया।
जीवन के हर उम्र पर
हमने अरमान नए रखे
पूरा करने को ख़्वाब सभी
हमने खाए ख़ूब धक्के।
थके नही न हम घबराए
ख़ुशी से हार को भी लिए गले लगाय
जो मिला वो सब में बाँट दिए
जो नही मिला उसे दिए बिसराय।
रोका भी नही...
रोका भी नही
टोका भी नही
छोड़ गए हमको और
सोचा भी नही ।
बोला भी नही
जताया भी नही
हमने बढ़ाया हाथ, उन्होंने,
थामा भी नही ।
इसीलिए मैं
रोया भी नही
जागा भी नही
ख़त्म कर दी सारी यादें, किसी एक को,
पिरोया भी नही।
खाली कुर्सियाँ...
हैं खाली कुर्सियाँ अब,
सुनने को कोई नही अब
दिल की कहानी बयां करूँ तो करूँ किसको
महफ़िल में नही दिलवाले अब।
जवान लोगों की शहर में कमी अब
ख़त्म हो गयी यहां की रौनक अब
अब तो बस अनपढ़ ही बचे हैं सब तरफ
पढ़ लिख कर कौन यहां रुकता है अब।
जो जितना ज्यादा पढ़ा उतना बड़ा नौकर अब
बन गए नौकर और हो गए पैसों के गुलाम अब
खत्म हुए दिलों के वो रजवाड़े और जुबां की मिठास
बहुत दिन बाद मिले तो पूँछ बैठे कहीं कोई काम तो नही अब!