Saturday 20 July 2019

बातें..(कही-अनकही!)

जुबाँ से कैसे बयाँ करें हम इशारों की बातें !
बहुत कम में बहुत कुछ कहना है जो मुझे .........

बहुत कुछ हमने कहा दिया तुमको!
काश तुम न कहा हुआ भी समझ पाते........

हमारी हरकतों ने बयाँ कर दी थी कहानी पूरी!
काश तुम मेरे दिल की बेचैनियां समझ पाते........

दौर था, निकल गया और अब न वापस आएगा!
काश! उस दौर की तुम कीमत समझ पाते........

ज़िन्दगी और सफलता

खाद्य ऋंखला पिरामिड सिखलाती जीवन का आधार,
छोटा या बड़ा, हर कोई यहाँ पर है एक दूजे का आहार,
यदि बढ़ना हैं ज़िंदगी में आगे और छूना ऊँचाइयों को,
पैनी नज़र, शातिर दिमाग़ और सीखना होगा करना शिकार।

जिस्म और मुहब्बत..

हम जिस्म में मुहब्बत ढूढ़ते रहे
और रूह तन्हा रह गयी ........

एहसास और शब्द!

एहसास कोमल होते हैं और शब्द निष्ठुर.......

इसीलिए प्रेम में ज़ुबान का कम और आँखों का अत्यधिक इस्तेमाल किया जाता है।

ज़ुबान को रख ख़ामोश तू आँखों से बातें कर
प्यार के इज़हार की यही एक माक़ूल अदा होती है।

जादूगर!

जादूगर लगते हो !
जब भी साथ होते हो तो,
समय यूँ छू मंतर हो जाता है.....

आज के दौर में इश्क़...

दौर ए जमाँ बदल रहा है
हर इंसाँ बदल रहा है
कौन कितना बड़ा बहरूपिया
कम्पटीशन चल रहा है।

चोरी से की जाने वाली
चीज़ों का डिस्पले चल रहा है
अब और नया क्या करें
इस पर विचार चल रहा है।

प्रेम जैसी चीज़ का
फ़ैशन चल रहा है
और प्रेम है किधर
इस पर रिसर्च चल रहा है।

मुहब्बत पर नए तरीक़े से
जमकर प्रयोग चल रहा है
इश्क़ करने के तरीक़ों का
क़ारोबार चल रहा है।

रचाए ढेरों स्वाँग हमने
देखो रंगा पुता जिस्म चल रहा है
पैदा कर दे दिलों में लालसा
छलकता हुवा जवानी का पैमाना चल रहा है।

आज़माए हर तरीक़े पर
न कोई संतोष मिल रहा है
पाने को प्रेम इस जहाँ में
हर इंसाँ नंगा चल रहा है।

दुनियादारी और तुम !

तुम मिलो तो कुछ और बातें किया करो,
दुनियादारी तो हम औरों से भी कर लिया करते हैं .....

तज़ुर्बा ए ज़िन्दगी...

हिम्मत और जोश बनाए रखें दौड़ ए ज़िंदगी में
कुछ हासिल हो न हो, तज़ुर्बे ख़ूब मिलते हैं ।

जीत और हार की मत सोच बस कोशिशें करता रह
ख़ुद को घिस-घिस कर तू अपनी धार तीखी करता रह ।

गर्दिश और फ़तह में बस इक महीन सा अंतर है,
फ़र्श से अर्श तक पहुचने में बस कोशिशों के तरीक़े का अंतर है।

क़िस्मत और मेहनत तो ज़रूरी है ज़िंदगी में जीतने के लिए लेकिन
किसी कहानी का क्या होगा अंजाम बस तज़ुर्बे तय करते हैं ।

बेक़रारी!

करार हमारे बीच कोई था ही नही, 
बस यही सबब था मेरी बेक़रारी का........

गुफ़्तगू खुद से....

ज़िंदगी अगर तुझे समझ कर जीते
तो फिर क्या ख़ाक जीते !

मज़ा तो ग़लतियाँ करने में था
हर पल को दिल से जीने में था !

माना कि ग़लतियाँ हज़ार हुयीं हमसे
सुनाने को कहानियाँ ख़ूब मिली इनसे !

क्या बताऊँ दिलों के खेल में दर्द ख़ूब मिले
छाया था ऐसा नशा जो न बोतलों में मिले!

ज़हर ख़ूब था हममें औरों का असर क्या होता
नशा ख़ुद का था हममें, शराब का असर क्या होता !

Monday 8 July 2019

मुलाकात (पाती....... प्रेम की -2)

सोमवार का दिन था। हर्ष ऑफिस में बैठा तेजी से काम निपटा रहा था। घडी में दोपहर के कुछ एक या दो बज रहे होंगे।तभी हर्ष के मोबाइल पर मैसेज टोन बजता है।  हर्ष ने पहले तो नजरअंदाज किया किन्तु जब दो तीन बार लगातार मैसेज टोन बजे तो हर्ष ने अनमने मन से मोबाइल उठाकर देखा - कौतुकी ! अरे वाह ..... ये तो कमाल हो गया। कौतुकी का मैसेज देख हर्ष हमेशा की तरह प्रफुल्लित हो उठा।

मैसेज में था-

हेलो हर्ष ! शुक्रवार को मैं तुम्हारे शहर में रहूंगी। मिलना चाहूंगी। कोशिश करना मिल लेना। बहुत दिन हो गए मिले हुए।

हर्ष के चेहरे पर मुस्कान आ गयी। मिनटों में वो स्कूल के दिनों में पहुंच गया। कोचिंग क्लास में ही तो पहली बार देखा था हर्ष ने उसे। सिंपल सलवार सूट में वो गज़ब की प्यारी लग रही थी। कुछ अलग ही था उसमे। पहली नज़र में ही हर्ष पागल हो चुका था। सपने भी देखता तो कौतुकी के। कोचिंग समय से पहले पहुंचने की वजह थी कौतुकी ताकि कोई भी पल व्यर्थ न जाये। क्लास चालू होने से ख़त्म होने तक हर्ष कौतुकी को ही देखता और क्लास ख़त्म होने के बाद भी गाहे - बगाहे क्लास से निकलते वक़्त उसके बगल से गुजरने या उसे छूने का भरसक प्रयास करता लेकिन डर की वजह से दिल की धड़कन बढ़ जाती और क्लास के पूरे समय में बनाया हुआ यह प्लान व्यर्थ चला जाता। जिस दिन कौतुकी कोचिंग नहीं आती उस दिन तो मानो समय कटता ही नहीं। यह सिलसिला जो क्लास नवीं में चालू हुवा वह बारहवीं तक चला। और परिणाम वही ढाक के तीन पात।

उस दौर में मोबाइल फ़ोन प्रचलन में आना शुरू ही हुए थे और बहुत भोकाली और रईस लोगों के पास हुवा करता था। ले दे के लैंड लाइन ही हुवा करता था। उसकी ऐंठन भी अलग। बड़ी मुश्किल से कौतुकी के घर के लैंड लाइन का नंबर निकाला गया और हिम्मत करके फ़ोन भी लगाया गया पर बात करने की हिम्मत नहीं हुयी। इतना ही नहीं - साइकिल लेकर कौतुकी के घर के बगल से भी निकला गया लेकिन क्या मजाल जो कौतुकी के घर की तरफ नज़र घुमा लेते। घर के पास पहुँचने तक घबराहट इतनी बढ़ चुकी होती थी की नज़र दूसरी तरफ कर लेते कि कहीं गलती से कौतुकी घर के बहार न मिल जाये और नज़रें मिल जाये।  फिर क्या घर के सामने से गुज़रते हुए नज़र दूसरी तरफ, जैसे हम तो बस यूँ ही घूमने निकले हों और कौन कौतुकी और कौन कौतुकी का घर। चेहरे पर ऐसे भाव जैसे ये रास्ता तो सामान्य रास्ता है और हम यहाँ से रोज़ गुज़रते हों।

बारहवीं के बाद हर्ष इंजीनियरिंग करने चला गया। वहां से भी कई बार फ़ोन पर बात करने की कोशिश की गयी। पर सोचता कि क्या बात करेगा। क्या सोचेगी वो। इसका भी हल निकाला गया कि बोल दूंगा की सीनियर रैगिंग कर रहे हैं और एक लड़की को फ़ोन लगाने को बोले हैं वरना खैर नहीं, इसलिए डर के मारे फ़ोन करना पड़ा। खुश तो बहुत थे। प्लान फुलप्रूफ था।  हिम्मत की और एक दोस्त का फ़ोन लिया। रिलायंस का cdma फ़ोन। उस उम्र के लोग अच्छे से समझेंगे की रिलायंस का cdma  क्या चीज होती थी।  खैर, फ़ोन लगाया गया ... घंटी बजी।  प्रत्येक घंटी के साथ दिल की धड़कने बढ़ती जा रही थी।  फ़ोन उठने तक तो पैर भी काँपने लगे।
कॉल पिक हुयी.......
हेलो..... 
हर्ष-हेलो
कौन!
हर्ष - हेलो
अरे आप बोलेंगे भी!
हर्ष - जी! राहुल से बात हो जाएगी।
कौन राहुल ?
हर्ष- जी ये राहुल का घर है न ?
जी नहीं।
हर्ष - अक्कछ्ह।  अच्छा सॉरी।
और फ़ोन कट। 

बस ये पहली और आखिरी कॉल थी हर्ष की कौतुकी को। इस घटना का अपराध बोध या फिर डर हर्ष के दिल में ऐसा छाया कि उसने कौतुकी से बात करने के विषय में सोचा भी नहीं। इतना डर - किस चीज का।  ये हर्ष को आज तक नहीं पता चला।  शायद वो ऐसा ही था।

इंजीनियरिंग ख़त्म होने को थी। समय बड़ी तेजी से निकल गया। इस बीच में शायद ही हर्ष ने कौतुकी को याद किया हो।  चूँकि उस दौर में सोशल नेटवर्किंग का प्रचलन उतना अधिक नहीं था और थोड़ा बहुत ही प्रयोग में था। फ़ोन पर फेसबुक का प्रयोग अति स्मार्ट लोग ही किया करते थे। चूँकि हर्ष इंजीनियरिंग का विद्यार्थी था तो यो (YO ) तो उसे होना ही था। प्लेसमेंट का दौर चल रहा था।  हर्ष इंटरव्यू के लिए तैयार होकर प्लेसमेंट सेल को भागा जा रहा था। तभी उसके मोबाइल पर एक टोन बजी।  उसने देखा तो फेसबुक नोटिफिकेशन था। मैसेज था।

हेलो ! तुम हर्ष हो न !
हर्ष- ध्यान से देखा तो ये तो एक लड़की का मैसेज था। रिसर्च हुयी। अरे वाह ! ये तो कौतुकी थी। हेलो - तुम कौतुकी हो न !
अरे वाह ! तुम तो पहचान गए ! मुझे लगा कि भूल गए होगे।
हर्ष- ख़ुशी छिपाते हुए , अरे ! बचपन के दोस्तों को कोई भूलता भी है क्या।
दोस्त ! कैसे दोस्त ? हमने तो कभी बात भी नहीं की। 
हर्ष- हाँ। (झेंपते हुए ) तुम्हारी बात भी सही है।
अरे छोड़ो ये सब।  मैं भी क्या ले के बैठ गयी। सुना है इंजीनियर बन गए हो ! बड़े आदमी बन गए हो। मुझे तो लगा कि  पहचानोगे नहीं। फेसबुक पर देखा तो कोचिंग की याद आ गयी। इसीलिए बात कर लिया। 
हर्ष- अच्छा किया ! और तुम्हे कोई क्यों नहीं पहचानेगा भाई।  तुम तो........
तुम तो क्या ?
हर्ष- अरे छोड़ो भी ! और बताओ।  कैसे हो ? कहाँ हो आजकल ?
मैं बेंगलुरु में हूँ। ओफिस में। 
हर्ष- अच्छा ! ऑफिस ! अरे वाह।  बड़े बड़े लोग!
अच्छा हर्ष तुमसे शाम में बात करुँगी। अभी थोड़ा काम निपटा लूँ।

और फिर हर्ष ने फ़ोन को जेब में रखा और प्लेसमेंट सेल की ओर भागा।(हर्ष आज बहुत खुश था और शाम को लेकर उत्साहित। )

फिर क्या। बातें चालू हुयी। दोस्ती हुयी और फिर प्यार भी हुआ। इस बीच हर्ष की जॉब भी लग चुकी थी। दिल्ली में। कौतुकी  अभी भी बेंगलुरु में थी। मौका मिलने पर एक दूसरे के शहर आना जाना और मिलना जुलना होता रहता। सामान्य मीटिंग, ज्यादा कुछ नहीं। कई बार हर्ष ने आगे बढ़कर शादी जैसे महत्वपूर्ण निर्णय के बारे में भी सोचा। पर हिम्मत न कर पाया। कौतुकी ज्यादा हिम्मत वाली निकली। उसने कई बार अपने दिल की बात खुलकर कही किन्तु हर्ष हिम्मत नहीं दिखा पाया।

समय बीतता गया और फिर एक दिन कौतुकी ने हर्ष को अपनी शादी तय होने की खबर हर्ष को दी।

उस रात हर्ष सो नहीं पाया था। रात भर सही-गलत के उधेड़ बुन में पड़ा रहा था। कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। और अंत में कदम पीछे खींच लिए गए थे। इसके लिए सामाजिक ताना-बाना किसी हद तक जिम्मेदार था। दोनों समझदार थे। उसके बाद कभी बात नहीं हुयी।  सोशल नेटवर्किंग का दौर चरम पर पहुँच चुका था अब। तो सारी जानकारी मिलती रहती थी।

और आज इतने दिनों बाद कौतुकी का मैसेज और मिलने के लिए बोलना सारी पुरानी यादों को ताजा कर गया। हर्ष ने मिलने को लेकर दुनिया भर के ख्याल बुन डाले। और इस मुलाकात को यादगार बनाने के लिए एक निशानी भी खरीद ली।(निशानी के बारे में फिर कभी )

शुक्रवार का दिन। हर्ष भी एकदम तैयार होकर निकला, किन्तु किसी वजह से कौतुकी को लेट हो गया। पूरा दिन मन मसोस कर हर्ष ऑफिस में ही बैठा रहा और कौतुकी के फ़ोन का इंतजार करता रहा। शाम पांच बजे कौतुकी का फ़ोन आया।  कौतुकी ने जगह बता दी और आने को बोला।  हर्ष ने भी आनन फानन में कार उठायी और चल पड़ा। तय जगह पर कौतुकी इंतजार कर रही थी। काली साड़ी - वाह ! क्या बात ! हर्ष के मन में कई ख्याल एक साथ जग गए। बला की खूबसूरत लग रही थी कौतुकी।

कार में आकर कौतुकी ने हर्ष को मुस्कुरा कर देखा।  और ! कैसे हो !
हर्ष- बढ़िया। और तुम ?
मैं भी बढ़िया।
हर्ष - फिर ! क्या प्लान है ?
कुछ नहीं। बस गाड़ी चलाते रहो। 
मतलब ! अरे कहीं तो चलना होगा ! कहीं चलते हैं ! आराम से बैठेंगे ! डिनर करेंगे। बातें भी हो जाएँगी !
नहीं। कुछ नहीं। बस गाड़ी चलाते रहो। मुझे कहीं नहीं जाना। इसी गाड़ी में बात कर लेंगे। 
हर्ष को कुछ भी समझ नहीं आया और वह चुपचाप गाडी चलाता रहा।

तीन घंटे की ड्राइविंग में ढेरों बातें हुयी। दोनों ही मैच्योर हो चुके थे। न कोई शिकवा - न कोई शिकायत। जिंदगी को लेकर ढेरों बातें। क्या थे और क्या हो गए।  जिंदगी कितनी तेज बीत रही है! लाइफ को लेकर क्या प्लान है। आगे ये करना है - वो करना है ! जॉब स्विच करनी है। घर लेना है इत्यादि ! इतनी फॉर्मल मुलाकात ! हर्ष ने जितना सब कुछ सोचा था कि मिलेंगे तो ये कहेंगे वो कहेंगे ! ये करेंगे वो करेंगे ! लेकिन ऐसा कुछ सोचने या करने का मौका नहीं मिला। दिल की बातों को हर्ष दिल में ही दबा गया।

समय हो चुका था। कौतुकी को निकलना भी था। हर्ष ने कौतुकी को बेमन से उसके बताये हुए जगह पर छोड़ दिया। पर ये क्या ! जाते -२ कौतुकी ने हर्ष को जोर से गले लगा लिया। हर्ष चौंक गया। ( वैसे चाह तो हर्ष भी यही रहा था लेकिन कौतुकी के फॉर्मल से व्यवहार को देखकर उसने अपनी इच्छा को दबा लिया था। ) हर्ष ने भी कौतुकी को कस लिया। कुछ सेकण्ड्स के बाद कौतुकी ने खुद को छुड़ाते हुए कहा - अच्छा तो अब जाओ ! फिर मिलेंगे !

तभी हर्ष को याद आया कि इस मुलाकात को यादगार बनाने के लिए वो एक निशानी लाया है। उसने तुरंत कार से वो चीज निकाली और कौतुकी को देते हुए बोला - सोचा तो था कि तुम्हे खुद पहनाउंगा किन्तु मौका ही नहीं मिला। अब इसे रख लो और खुद पहन लेना। और मुझे पिक्चर भेज देना। कौतुकी बोली - ठीक है ! अब जाओ।

लौटते समय हर्ष कार में आज की मुलाकात को लेकर मुस्कुरा रहा था। दोनों के दिलों में एक-दूसरे के लिए जो आग थी वो अब  भी बाकी थी किन्तु दुनियादारी की राख ने उसे पूरा ढक लिया है। जो दिखती तो नहीं है किन्तु दहक रही है। इसी दहक की आंच को ही दोनों ने एक-दूसरे को गले लगने के दौरान महसूस किया और एक साधारण सी मुलाकात को  असाधारण और यादगार मुलाकात में बदल दिया।

हर्ष का मन बस यही गुनगुना रहा था -

यक़ीं नहीं होता ख़ुद की क़िस्मत पर मुझे
ये सपना तो नहीं कहीं कोई काटो चुटकी मुझे
इतने नज़दीक हैं वो मेरे कि कोई सम्हालो मुझे
कैसे रखूँ क़ाबू में ख़ुद को चढ़ रहा नशा मुझे ।

छूँ लूँ उसे कि हो जाए यक़ीं मुझको
कैसे बढ़ूँ उसकी ओर कि लगता डर मुझको
आँखें ये ठहरती ही नहीं कि लगती चौंध मुझको
उनका आफ़तबी चेहरा कर रहा रोशन मुझको ।

ख़ुदा करे ये पहिया समय का ठहर जाए यहीं
क़ैद कर लूँ उन्हें अपनी आँखों में न जाने पाए वो कहीं
थाम लो दिल की धड़कनो को बनो बेसब्र नहीं
वो आएँ हैं मिलने क्या इतना ही काफ़ी नहीं ।

मासूमियत तो देखो उनकी जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं
नैनों से लिख रही हो इबारत कि बन रही है कहानी नयी
लगायी है तुमने जो आग कि वो अब बुझेगी नहीं
कलमबंद कर लूँ इन्हें कि ये कोई आम मुलाकात नहीं।


Thursday 4 July 2019

मासूमियत-एक हथियार!

मासूमियत मासूम न रही,
किसी हथियार से कम न रही।
होता इसका बख़ूबी इस्त्माल,
करने को क़त्ल सरे आम।
शौक़ हमने भी रखा,
हथियारों के ज़ख़ीरे का,
डिस्प्ले में नित बढ़ता रहा,
हथियार नए क़रीने का।
आज यूँ ही ख्याल आया,
सुना बाज़ार में नया हथियार आया।
चलो हथियारों के दुकान पर चला जाय,
चलो वो वाला नया हथियार लाया जाय।
ज्यूँ ही हमने दुकान पर क़दम रखा,
दुकान वाले ने एक तगड़ा सलाम ठोंका।
कुछ पूँछता उससे पहले मेरी नज़र उस पर पड़ी
सबसे महँगे हथियरों में मासूमियत ही मिली।

चेहरे....

चेहरों के इस संसार में बस एक चेहरा ढूढ़ता हूँ,
चेहरे पर न हो कोई और चेहरा, वो चेहरा ढूंढता हूँ।

चेहरों के इस बाज़ार में चेहरे सभी रंग बिरंगे हैं,
रंग बिरंगे इन चेहरों में मैं एक रंग पक्का ढूढ़ता हूँ।

तासीर मेरी पानी सी मैं रूप बड़ा बेजोड़ रखता हूँ,
ढल जाता हर रूप में, मैं रुख लचीला बहुत रखता हूँ।

वो कहते हैं कि आनन्द तू चेहरे पर मुस्कान बहुत रखता है,
क्या बताऊँ कि मैं दर्द को दवा में बदलने का हुनर खूब रखता हूँ।

Wednesday 3 July 2019

क्या खोया-क्या पाया!

इतनी भाग दौड़ के बाद बस यही नतीजा निकला,
न कभी फ़ुर्सत मिली और न ही कोई काम निकला !

ज़िंदगी तुझे तो हम कभी समझ ही न सके,
उलझनों को सुलझाते रहे पर न कोई हल निकला !

जब भी हमको लगा तुझे पहचानने लगे हम,
जब जब पर्दा उठा तब तब चेहरा नया निकला !

आरज़ू थी कि एक शाम होगी और तेरा साथ होगा,
इंतज़ार में हो गयी रात न जाने कब ये दिन निकला !

ये तो कुछ शब्द हैं जो निभा रहे हैं तेरा साथ,
वरना दुनिया की इस भीड़ में आनंद तू तो बेहद अकेला निकला !

क्या फायदा!

अब गुस्सा करना छोड़ दिया मैने......
किस बात से फर्क पड़ता है, ये बताने से क्या फायदा!

अब कोशिशें नहीं करता मैं......
जो अपना नही है, उसे समझाने से क्या फायदा!

तीर तो कई हैं तरकश में मेरे.....
जब हारना अपनों से है, तो चलाकर क्या फायदा!

मेरी खामोशी को मेरी कमज़ोरी समझते हैं.....
खो चुके है वो मुझको, अब उन्हें बताकर भी क्या फायदा!

ये रात यूँ ही बेलज्जत बीत रही है......
उनके आने की कोई खबर नही, इंतज़ार का क्या फायदा!

जिंदगी गुजर रही है न जाने किस नशे में......
किधर जाना नही है पता, अब होश में आने का क्या फायदा!

अधूरी ख़्वाहिशें...

कुछ ख़्वाहिशें अधूरी सही,
जीने की वज़ह धूढ़ने की ज़रूरत तो नही!

पीना-पिलाना!

ये पीना पिलाना,
कभी बहुत नही होता,
ज़िंदगी ही एक नशा है,
इसमें कोई होश में नही होता।
मौत की क्या बात करनी,
वो तो आनी ही है,
कश्ती अगर धाराओं के संग
चली तो क्या नयी कहानी है।
हौसलों को ऊँचा रखो,
सिर्फ़ बातों से कुछ नही होता ,
मेरी मानो तो नशा भरपूर रखो,
होश में कुछ भी नही होता।

ग़ुनाह!

अगर ख्वाबों को जी पाता....
न जाने कितने गुनाह कर जाता!

लेख़क!

कुछ ख़्वाहिशें दबीं थी दिल में जो किसी को बता न सके,
ओढ़ कर चेहरा एक लेखक का खोल दिए राज काग़ज़ों पे।

उम्र का फ़लसफ़ा...

सुबह से शाम हो रही है ,
ये उम्र बस यूँ गुज़र रही है,
कहने को तो सब कुछ है मेरे पास,
न जाने फिर क्यूँ ये शाम तन्हा गुज़र रही है।

ज़िन्दगी किताबी जी रहा हूँ मैं,
सफर एक सुहाना तय कर रहा हूँ मैं,
देखा जाए तो रोमांच कम नही है लेकिन,
लगता है बेमतलब में उम्र तमाम कर रहा हूँ मैं।

ख्वाहिशों का बोझ इतना बढ़ा लिया मैनें,
देखे हुए सभी सपनों को दबा दिया मैंने,
जरूरतों को पूरा करने में दौड़ इतनी बढ़ी कि,
पिछले चंद सालों में खुद को अकेला कर लिया मैने।

रुको, ठहर जाओ, लो एक लंबी और गहरी सांस,
झाँको खुद के अंदर और करो अपनी संगत का एहसास,
साथ बिताओ कुछ पल अपने और अपनों के साथ,
जिंदगी जीने का मजा तब, जब चलो लेकर हाथों में हाथ।

ज़िंदगी...

ज़िंदगी हमने चखी
लेकर ढेरों स्वाद
जी भर जिया
न होने दिया बर्बाद।

नही किया अफ़सोस
क्या खोया क्या पाया
बदल कर रंग हर मंच पर
हमने हर किरदार निभाया।

जीवन के हर उम्र पर
हमने अरमान नए रखे
पूरा करने को ख़्वाब सभी
हमने खाए ख़ूब धक्के।

थके नही न हम घबराए
ख़ुशी से हार को भी लिए गले लगाय
जो मिला वो सब में बाँट दिए
जो नही मिला उसे दिए बिसराय।

रोका भी नही...

रोका भी नही
टोका भी नही
छोड़ गए हमको और
सोचा भी नही ।

बोला भी नही
जताया भी नही
हमने बढ़ाया हाथ, उन्होंने,
थामा भी नही ।

इसीलिए मैं
रोया भी नही
जागा भी नही
ख़त्म कर दी सारी यादें, किसी एक को,
पिरोया भी नही।

खाली कुर्सियाँ...

हैं खाली कुर्सियाँ अब,
सुनने को कोई नही अब
दिल की कहानी बयां करूँ तो करूँ किसको
महफ़िल में नही दिलवाले अब।

जवान लोगों की शहर में कमी अब
ख़त्म हो गयी यहां की रौनक अब
अब तो बस अनपढ़ ही बचे हैं सब तरफ
पढ़ लिख कर कौन यहां रुकता है अब।

जो जितना ज्यादा पढ़ा उतना बड़ा नौकर अब
बन गए नौकर और हो गए पैसों के गुलाम अब
खत्म हुए दिलों के वो रजवाड़े और जुबां की मिठास
बहुत दिन बाद मिले तो पूँछ बैठे कहीं कोई काम तो नही अब!

काश!

संभावना
असंभावना
सपना
हक़ीक़त
सफलता
असफलता
भटकना
या फिर ठिकाना
तुम्हारा साथ
या फिर अकेलापन
कोशिशें बहुत की
पहुचें भी
और नही भी
अब तो बस
यही सोचना
काश!

छुट्टी...

अब तो सुबह होती है केवल और केवल घबराहट में,
टूटता बदन, निराश मन, इच्छा नही कही जाने की।
क्या बताएं बरखुरदार समस्या ज्यादा कुछ भी नही,
एक शाम और कुछ अदद छुट्टियां मिली नही हैं जमाने से।

नीम हकीम...

नीम हकीम फिजिशियन सर्जन, सबकी नसीहतें बेकार चली गयी ।
तूने सुबह टहलना जो शुरू किया, न जाने कितनों की सेहत सुधर गयी।

दिलों के तजुर्बे...

तजुर्बा दिल के इस खेल का सीखा हमने
सब कुछ लगा कर दाँव पर,
डूबकर आग के दरिया में
पहुँचना होता है साहिल पर ।

यूँ तो इक बार सभी
गुज़रते हैं इश्क़ की राह पर,
दिल में उसकी सूरत लिए
रहते सातवें आसमान पर ।

आसानी से मिलती नही मंज़िल
रखना पड़ता है पत्थर दिल पर,
आशिक़ी में पहचान बनती है
ख़ुद को उसमें खोकर ।

दिल की चोटों से डरने वाले
छोड़ दो ये रास्ता समय पर,
मंज़िल पाने को सफ़र लम्बा और
चलना है काँटों भरी राह पर ।

और बनता नही है कोई यहाँ कवि
इश्क़ की बाज़ी जीत कर,
खूं को स्याही करना पड़ता है
यूँ ही नहीं उतरता दर्द काग़ज़ों पर ।

खोज!

पाने को साथ तनहा रास्तों में हमसफ़र ढूढ़ता हूँ,
पुकारे कोई मुझे वीरानों में वो आवाज़ ढूढ़ता हूँ,
वैसे तो ख़ुद की संगत का मज़ा कुछ और है लेकिन,
ये जिंदगानी लम्बी और मैं जीने की वज़ह ढूढ़ता हूँ।

आगे बढ़ते रहना ही ज़िंदगी है मैं ख़ुद की पहचान ढूंढ़ता हूँ,
नाम लेने में भी सोचना पड़े मैं अपने नाम में वो जान ढूंढ़ता हूँ,
ऐसी हैसियत हो जाए कि कोई सोच भी न पाए ऐ मेरे मालिक कि,
साथ रहने वालों के सीने हो जाए चौड़े मैं अपना वो क़द ढूंढ़ता हूँ।

पढ़ाई और मौज ...

लोग कहते कि अच्छे से पढ़ लो
फिर मौज ही मौज है......!
पर कोई हमसे तो पूछे कि केवल
पढ़ने के दौरान ही मौज है ।
वो देखो कितना पढ़ता है अभी त्याग कर रहा है
आगे ख़ूब मौज करेगा .....!
मगर अनुभव ने ये सिखाया कि सारा त्याग तो अभी है
मौज तो पढ़ने के दौरान ही थी ।
अभी पढ़ लोगे तो कुछ बन जाओगे
दुनिया घूमोगे मौज करोगे .....!
लो बन गए कुछ और घूम ली दुनिया लेकिन
मज़ा तो ख़ाली जेबों और दोस्तों के साथ घूमने में था।
सभी सोचे कि पढ़ाई ख़ूब होती है परीक्षा के पहले
फिर मौज करने के दिन आते हैं ....!
लेकिन सच पूछो तो परीक्षाओं के बाद तो ख़ालीपन आता है,
मौज तो परीक्षा और उसके पहले ही आती है।
न कोई त्याग न कोई कष्ट और न ही कोई संघर्ष होता है,
पढ़ाई के समय में केवल मौज होता है।
इश्क़, दिल्लगी, फ़क़ीरी, और सबसे ज़्यादा यारों का साथ होता है,
मौज में बीता वो हर इक दिन सुनहरा होता है।
हमने तो पढ़ाई के सिवा सब कुछ किया पढ़ाई के दिनों में,
क्या ख़ाक कोई मौज पढ़ाई के बाद होती है ....!

कमी...

कुछ कमी सी लग रही है,
आँखे नम सी लग रही है,
यूँ बे-मौसम ठंड नही होती,
कहीं हुई है बारिश लग रही है।

चेहरे पर मायूसी दिख रही है,
बिन बताये पूरी कहानी बयां हो रही है,
ये जुबाँ यूँ ही खामोश नही होती,
ये तूफान के बाद की बर्बादी लग रही है।

अगल बगल से एक आंच निकल रही है
ये आग भीतर की बहुत देर से दहक रही है
ये बिजलियाँ यूँ ही नही चमकती,
किसी टूटे हुए दिल से आह निकल रही है।

इत्र से महकता नाम ...

इधर देखना उधर देखना ये निगाहें खूब दौड़ने लगी
चमक उठा ये चेहरा और महक उठी पूरी ये शाम
लगा कि अपना आना भी सफल हो गया इस महफ़िल में
जब किसी ने लिया इत्र सा महकता हुआ तेरा नाम।

इससे पहले कि...

इससे पहले कि
ये घड़ी बीत जाए
दिल की बात
दिल में रह जाए
भर नज़र देख लूँ
दिल के पटल पर
तस्वीर उतार लूँ
बड़ी मुश्किल हैं
धड़कनें तेज़ बहुत हैं
कैसे भरूँ रंग
काँपते हाथ मेरे
विचलित ये मन
हो रहा अधीर
बहुत ये चितवन
खो रहा होश
थाम लो मुझे
इससे पहले कि..........

रात के आंसू...

रात के आंसू
तो तकिए जनते हैं ।
हम रोए कितना
ये अंधेरे जानते हैं।
चेहरे के शिकन को छुपाया कैसे
ये मेरे घर के कोने जानते हैं।
तुम्हारे जाने का दुःख
झेल गए सब कुछ
मत पूछो हम ज़िंदा हैं कैसे
दिल की बातें हैं बस,
दिल की ये धड़कन जानते हैं।

किस रिश्ते में बाँधू तुमको!

तुझसे दूर लेकिन बेहद क़रीब तुमसे,
मुश्किल हो रहा ये रिश्ता निभना हमसे,
तुम क्या लगते मेरे ज़माना पूँछें मुझसे,
नही सूझता कि लोगों को समझाऊँ कैसे।

ये संगत पुरानी, पसंद तेरे तरीक़े हमको,
रहना संग मेरा तेरे नहीं पसंद किसी को,
रिश्तों को नाम देना ज़रूरी है क्या, कोई बताए हमको,
नही समझ पा रहा किस रिश्ते में बाँधू तुमको ।

सोचते तो हैं मगर...

सोचते तो हैं मगर
मगर मेरे बस में नहीं
नहीं कर सकते हम
हम ख़यालों में बुनते
बुनते चाँद सितारे
सितारों का आँचल
आँचल में चेहरा
चेहरा ऐसा कि परे कल्पना
कल्पना में क्या जीना
जीना क्या तेरा बिना
बिना तेरे अब कुछ और नही सोचना
सोचते तो हैं मगर!

उड़ान...

ज़माने के लोहे की चोट खाकर,
वक़्त की भट्टी में खुदको पिघलाकर,
सब्र के साँचे में मैंने ख़ुद को ढाला है,
झेलकर सारी मुश्किलों की तपिश,
इरादों को यूँ फ़ौलाद मैंने किया है,
कि उड़ने को हूँ तैयार और अब,
आसमाँ मेरे परों में आ गया है।

कोई ख़्वाहिश नही!

कोई ख़्वाहिश नही
ऊँचाई की
चाहत केवल एक
पहचान की
उम्मीदों से भरा जीवन
रहे व्यस्त हरदम
रोज़ नयी शुरुवात हो
तुमसे एक ख़ास बात हो
बस इतना सक्षम रहूँ
सबकी ज़रूरतों में हाज़िर हरदम रहूँ
रहूँ बिंदास रहे कोई तनाव नही
और कोई ख़्वाहिश नही।

माँ

माँ जब तुमने मुझे छुवा था,
जीवन का तब संचार हुआ था ।
आकर दुनिया में मैंने जब खोली अपनी आँखें
चेहरा देख तेरा मुझको तब पहला प्यार हुआ था ।
रोना गाना चीख़ना चिल्लाना सभी शिकायत तुझसे थी
तूने हंस कर मेरी हर हरकत पर जमकर लाड़ लुटाया था ।
चलना बोलना खाना खेलना सब कुछ तेरा दिया हुआ
भुलकर सोना जागना  माँ तूने ख़ुद को भी भुलाया था।
मैन क्या कर पाउँगा अकेले अब भी दिल घबराता है
दिल ढूँढ़े तुझे जब जब ख़तरा कोई मँडराता है।
जुड़ी रहे ये डोर सदा तू रहे हमेशा क़रीब मेरे ,
मैं शेर ज़माने में तब तक जब तक पीछे तेरा सहारा था।

उनका असर!

गरम हवाएँ चारो तरफ़, चल रही लू हर तरफ़,
नही समझ पा रहे मिज़ाज, मौसम के जानकार हर तरफ़,
कोई हमसे पूछे वजह, कि वो आज ही गए हैं शहर छोड़कर,
इसलिए नाराज़ होकर चल रही हैं गरम हवाएँ हर तरफ़।

सब कुछ सम्भव है, तू धरा को उँगलियों पर उठा कर तो देख,
समय भी ठहरता है, तू उनकी ज़ुल्फ़ों की छांव में बैठकर तो देख।

कुछ दिखता नही इतनी काली रात है, कहीं ये अमावस तो नही ,
अँधेरा ही अँधेरा हर तरफ़ कहीं ये, उनके ज़ुल्फ़ों की छांव तो नहीं।

आज़मा लो!

आग अभी बाकी है कि नही
जांच कर के देख लो कि
खुराफ़ात बाकी है कि नही
तुम सोच रहे हो कि समय बदल गया
वो पहले वाला आनंद बाकी है कि नही
समय निकालो और कभी मुलाकात तो करो
तब तो पता चलेगा कि पहले जैसी गर्मी बाकी है कि नहीं।

आँखें हार गईं .....

दिल की इस गगरी को
मैंने छलकने से रोका था,
आँखों में बसी गंगा को
मैंने बहने से रोका था,
उम्मीद थी कि सब अच्छा होगा
मिलेंगे हम तुम और सब कुछ ठीक होगा।
कब से जो मैंने खुद को संभाल रखा था,
झूठी मुस्कान से अंदर के गम को छुपा रखा था।
किन्तु किस्मत ने खेला खेल,
पलटी बाजी और चली ऐसी चाल।
दिल पर जो रखे हुए थे हम पत्थर,
वो भी वक़्त की आंच में पिघल गया।
बांध सब्र का कब तक साथ देता,
इंसान ही थे न कि कोई देवता।
नदी का बहाव तेज था नाव मेरी डूब गई,
निकल आये आंसू और ये आंखें हार गईं।

ज़िन्दगी मेरी बात तो मान...

ज़िन्दगी मेरी बात तो मान
बैठ जा, सुस्ता ले
कुछ आराम तो कर
घट रही जो घटना
उस पर गौर तो कर
छूट रहे जो अपने
उनसे मुलाक़ात तो कर
क्या करेंगे इतनी तेज़ दौड़कर
ये शाम कैसे काटे अकेले रहकर
कुछ देर रुक जा खुद से बात तो कर
झांक कर अपने अंदर खुद को पहचान
ज़िन्दगी मेरी बात तो मान।

मकाँ

इसी मकाँ में कभी
तुमने अपने पहले क़दम रखे थे
लाल रंग में रंगे हुए
छोड़ी थी अपने पैरों की एक छाप
लगा दी थी मुहर
बना लिया था इस घर को अपना
कल तक तो मेरी चलती थी
पर अब क़ब्ज़ा तुम्हारा था
मिल्कियत तुम्हारी थी
ऐसा लग रहा था जैसे
इस घर को तुम्हारा ही इंतज़ार था
तू बेवजह अब तक दूर था
अब लगा इतना सन्नाटा क्यूँ था?
क्यूँकि तेरा ही इंतज़ार था
इस मकाँ को कभी !

आदत सी हो गयी है...

आदत सी हो गई है
बेवजह बड़बड़ाने की
बात-२ पर चिल्लाने की
उँगलियों पर कुछ गिनते रहने की
कुछ भूल रहा हूँ जैसे और करता हूँ
कोशिश न जाने क्या याद करने की
उधेड़बुन में रहता हूँ
न जाने क्या खोजता हूँ
मेरी अब ख़ुद से ही शिकायत
बेशुमार हो गयी है
ऐसे जीने की अब मुझे
आदत सी हो गयी है