रस- इस शब्द के मायने मेरे लिए व्यापक हैं। जीवन के सन्दर्भ में यदि इसकी बात करूँ तो व्यक्ति के जन्म से लेकर मृत्यु तक के पथ में आने वाले पड़ावों एवं प्रत्येक पड़ाव पर मिलने वाले अनुभवों - एहसासों की श्रृंखला हैं ये। जन्म से लेकर युवावस्था , युवावस्था में खिलते यौवन की उथल- पुथल, साथी- संगी, पहला प्यार, प्रेमी- प्रेमिका, विवाह , माता-पिता बनने का सुख एवं जिम्मेदारियां , वृद्धावस्था और फिर मृत्यु। व्यक्ति के जीवन में कहीं एकाकीपन न आने पाये इसलिए प्रकृति ने भी सतत बदलते रहने का आशीर्वाद दिया है प्राणिमात्र को। हर अवस्था का अलग महत्व अलग मस्ती। इस मस्ती के रसपान का आनन्द लेना हो तो लोक-गीतों से अच्छा कोई माध्यम नहीं।
चूँकि मैं अवध प्रान्त से सम्बन्ध रखता हूँ तो अवधी लोक-गीतों की थोड़ी समझ मुझमे by default है। अन्य भाषाओं के लोक-गीत भी कर्ण-प्रिय होते हैं, किन्तु समझ नहीं पता हूँ। लेकिन यदि थोड़ी देर सुन लेता हूँ तो उसमें विद्यमान रस के रसातल में पहुँच जाता हूँ। जीवन में मौजूद हर तत्त्व को कितनी बारीकी से पिरोया गया है इन लोक - गीतों में। जैसे - सोहर, चैती, कजरी, बिरहा, विरह, विवाह, विदाई इत्यदि .... इनमे जीवन के काल चक्र को प्रकृति और उसमें विद्यमान विभिन्न ऋतुओं से जोड़ दिया गया है। जैसे युवावस्था हो, सावन का मौसम हो, काले-काले बादल हों , ठंडी हवाएं हो, बागों में झूले पड़े हो, कोयल कूंक रही हो, अमराई की खुशबू, यारों-दोस्तों / सखी-सहेलियों का साथ हो.....आहाआआआ क्या कहना। इस पर कजरी की धुन पड़ जाये कानों में। अनंतिम सुख! इसके बाद ईश्वर प्राण भी ले लें तो कोई गम नहीं। इस पर भी कोई न कोई लोक गीत मिल जायेगा। आत्मा की परमात्मा से मिलने के रास्ते को सुगम बनाने के लिए। अध्यात्म तो लोक-गीतों के माध्यम से अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है। वास्तव में जीवन को ढाला ही इस तरह गया है कि इसको जीने का मजा प्रकृति के साथ ही आता है और इस आनन्द को दुगुना करने के लिए लोक-गीतों ने भी प्रकृति का आवरण ओढ़ लिया है। हर समय, हर अवस्था और हर मौसम के लिए बिलकुल ही अलग गीत।
वैसे मैं जिस पीढ़ी से सम्बन्ध रखता हूँ उनमे से बहुत लोगों को शायद ये चर्चा समझ ही न आये। इस युग के गीत-संगीत, शोर -शराबे, बंद कमरे की पार्टियों और पहनावे से तो केवल काम-वासना ही बढ़ती है। एक पल को ये संगीत आपको अपने आगोश में जकड कर थिरकने पर मजबूर तो कर देता है किंतु आखिर में हाथ आता है तो बेचैनी, घबराहट, अशांति, और तनाव। ये हमें कल्पना के एक ऐसे झूठे स्वप्नलोक में लाकर छोड़ देते हैं जहाँ वास्तविकता का कोई धरातल नहीं होता है। अंततः गिरना और चोट खाना तो तय है। ज्यादा नहीं लिखूंगा। चूँकि इंजीनियरिंग का विद्यार्थी रह चुका हूँ और हॉस्टल में रहा हूँ। मॉडर्न दिखने की होड़ में हर तरह के साहित्य, संगीत, चल-चित्र, वेश-भूषा का शौक भी है और इन्हें मैं एन्जॉय भी करता हूँ।
चूँकि लोक-गीतों में विविधताएं बहुत है और मेरी जानकारी काफी कम। इनके बारे में लिखना तो नामुमकिन है किंतु इन्हें सुनकर मेरे शरीर में हार्मोनों का ज्वार-भाटा अपने उफान पर पहुँच जाता है। जीवन के तीसरे दशक में जी रहा हूँ। बाल्यावस्था, युवावस्था को पार कर शायद प्रौढ़ावस्था में हूँ। आप समझ ही सकते हैं मेरी मनोदशा। प्रेम, मान-मनुहार, विरह, विवाह पर आधारित लोक-गीत तो मेरे अंदर ऐसी झनझनाहट पैदा करते हैं कि रोम-रोम सिहर उठता है। बहुत कुछ लिखने को मन कर रहा है, किन्तु आप पढ़ेंगे नहीं। आज की पीढ़ी में धैर्य नहीं है! मेरी तरह।
ई ट्रेनिया बैरी पिया का लिए जाय हो....
ई ट्रेनिया बैरी पिया का लिए जाय हो....
जौने टेशन पिया टिकटा कटौले ,
पनिया बरसे टिकट गल जाय हो......
ई ट्रेनिया बैरी पिया का लिए जाय हो....!
हमारी पीढ़ी प्राकृतिक कलाओं, लोकाचारों एवं मानवीय क्रियाकलापो को देखती तो है परंतु महसूस नहीं करती । हम काफी हद तक संवेदनहीन हो चुके है।
ReplyDeleteलेख का विषय बहुत पसंद आया, लेख को शब्दमाला में अच्छा गढ़ा है ।
कलम के माध्यम से बोलते रहे । ऐसे ज़मीनी लेख पढ़ने को आतुर है हम ।
इतनी गहन समीक्षा के लिए आपका धन्यवाद । ऐसे ही उत्साह वर्धन करते रहिए। कुछ नया मिलता रहेगा आपको।
Deleteबहुतै बडिया भईया जी|
ReplyDeleteरस आ गया |👌👌👌
DHANYWAD :)
ReplyDeleteVery nice sir.
ReplyDeletePadh ke maja aa gaya ,wakai me prakrit ne kbhai hme ekaki ke lie banaya hi nhi ,sadaiv ek naye taste ke sath jeevan anubhav roopi nav ko lekar age badhta rhta...