Wednesday, 5 October 2022

सफ़र

दिल में एक उम्मीद जगी है फिर आज 

रेलगाड़ी के सफ़र को मैं निकला हूँ आज।


एक शख़्स ने ले लिया तेरे शहर का नाम 

लो बढ़ गया धड़कनों को सँभालने का काम।


इस गाड़ी के सफ़र में तेरा शहर भी तो पड़ता है 

बनकर मुसाफ़िर क्यूँ चले नहीं आते हो आज।


कैसे भरोसा दिलाएँ कि ज़िद छोड़ दी अब मैंने

बस मुलाक़ात होती है रोकने की कोई बात नहीं।


दिवाली का महीना है, साफ़-सफ़ाई ज़रूरी है

क्यूँ नहीं यादों पर जमी धूल हटा देते हो आज।


धूमिल होती यादों को फिर से आओ चमका दो आज 

पॉवर बढ़ गया है फिर भी बिन चश्में के देखेंगे तुझे आज।


झूठ बोलना छोड़ चुके हम अब दो टूक कहते हैं

नहीं जी पाएँगे तुम्हारे बिना ये झूठ नहीं कहेंगे आज।


तेरे यादों ने अच्छे से सँभाला हुवा है मुझे

फिर मिलेंगे ये विश्वास लेकर यहाँ तक आ गए आज।


दिल में एक उम्मीद जगी है फिर आज 

रेलगाड़ी के सफ़र को मैं निकला हूँ आज।


©️®️सफ़र/अनुनाद/आनन्द/०५.१०.२०२२





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