इसी मकाँ में कभी
तुमने अपने पहले क़दम रखे थे
लाल रंग में रंगे हुए
छोड़ी थी अपने पैरों की एक छाप
लगा दी थी मुहर
बना लिया था इस घर को अपना
कल तक तो मेरी चलती थी
पर अब क़ब्ज़ा तुम्हारा था
मिल्कियत तुम्हारी थी
ऐसा लग रहा था जैसे
इस घर को तुम्हारा ही इंतज़ार था
तू बेवजह अब तक दूर था
अब लगा इतना सन्नाटा क्यूँ था?
क्यूँकि तेरा ही इंतज़ार था
इस मकाँ को कभी !
Wednesday, 3 July 2019
मकाँ
आदत सी हो गयी है...
आदत सी हो गई है
बेवजह बड़बड़ाने की
बात-२ पर चिल्लाने की
उँगलियों पर कुछ गिनते रहने की
कुछ भूल रहा हूँ जैसे और करता हूँ
कोशिश न जाने क्या याद करने की
उधेड़बुन में रहता हूँ
न जाने क्या खोजता हूँ
मेरी अब ख़ुद से ही शिकायत
बेशुमार हो गयी है
ऐसे जीने की अब मुझे
आदत सी हो गयी है ।
Thursday, 9 May 2019
एक बात बोलूँ...
एक बात बोलूँ
मैं इन आँखों से
तुम समझ लेना
अपनी आँखों से।
इशारों में बता देना
दे देना एक मुस्कान
न कोई राज खोलना
बेवजह क्या बोलना।
मेरे हमसफ़र आओ
मेरे हमसफ़र आओ
आओ साथ चलें
चलें हम बहुत दूर
दूर इतने कि न रहें मजबूर
मजबूर क्यों रहना
रहना इतने पास
पास इतने कि हो साँसे महसूस
महसूस करें इक दूजे को आओ
आओ मेरे हमसफर आओ।
सफ़र
मुसाफ़िर ही तो थे रास्तों से रुककर दिल्लगी क्या करते ,
कोई हाल पूछने वाला भी तो न था पैर पसार कर भी क्या करते।
उनकी नज़रों से मिल जायें ये नज़रें इससे ज़्यादा क्या चाहते,
फ़क़त इश्क़ ही तो है कोई शहर तो नहीं जो हम यहाँ बस जाते।
थका हूँ, बहुत दूर से आया हूँ इक लम्बा सफ़र तय करके,
ज़ुबान से दर्द बयाँ करूँ ज़रूरी तो नहीं, ये पैरों के छाले क्या कुछ नहीं बताते।
दहलीज़ पर तिरे दी है दस्तक, बहुत मज़बूर थे हम अपने दिल के वास्ते,
वरना हर गली में मशहूर है तेरे दिलों से खेलने के क़िस्से, तुझे इस दिल से खेलने का मौक़ा क्यूँ देते।
अब तेरा इंतज़ार नही...
खुद से ईमानदार बहुत थे,आदतन जिम्मेदार बहुत थे,
बेईमानी का तो सवाल ही न था, तुम रुके होते तब तो कुछ कहते।
तुमने आवाज न दी और न किया इंतज़ार और सफर में आगे चल दिये,
दिल को मनाया और रास्ते बदल दिए हमने, बेगैरत तेरा इंतज़ार क्या करते।
मिट्टी के घर याद आते है ....
बेमतलब का सबसे मिलना जुलना था,
रिश्ते वो पक्के बहुत याद आते हैं।
गर्मी की छुट्टी वो दादी-नानी का गाँव,
आम के बाग और ताल-तलैया याद आते हैं।
तपती गर्मी, भरी दुपहरिया और सखी-सहेलियाँ
सावन की ऋतु के वो झूले याद आते हैं।
छत पर सोना और वो बूढ़े पीपल की सरसराहट
खुले आसमान में वो तारे याद आते हैं।
चाचा के संग रात में खेतों को पानी देना,
भूत-पिशाचों की वो कहानियां याद आती है।
पेड़ों पर चढ़ना उतरना और ढेर सारी मस्ती,
खुद से तोड़े वो आम और जामुन याद आते हैं।
वो वर्षा ऋतु की पहली बारिश और जमकर भीगना
वो सोंधी खुशबू और मिट्टी के घर याद आते हैं।