Saturday, 20 July 2019

गुफ़्तगू खुद से....

ज़िंदगी अगर तुझे समझ कर जीते
तो फिर क्या ख़ाक जीते !

मज़ा तो ग़लतियाँ करने में था
हर पल को दिल से जीने में था !

माना कि ग़लतियाँ हज़ार हुयीं हमसे
सुनाने को कहानियाँ ख़ूब मिली इनसे !

क्या बताऊँ दिलों के खेल में दर्द ख़ूब मिले
छाया था ऐसा नशा जो न बोतलों में मिले!

ज़हर ख़ूब था हममें औरों का असर क्या होता
नशा ख़ुद का था हममें, शराब का असर क्या होता !

Monday, 8 July 2019

मुलाकात (पाती....... प्रेम की -2)

सोमवार का दिन था। हर्ष ऑफिस में बैठा तेजी से काम निपटा रहा था। घडी में दोपहर के कुछ एक या दो बज रहे होंगे।तभी हर्ष के मोबाइल पर मैसेज टोन बजता है।  हर्ष ने पहले तो नजरअंदाज किया किन्तु जब दो तीन बार लगातार मैसेज टोन बजे तो हर्ष ने अनमने मन से मोबाइल उठाकर देखा - कौतुकी ! अरे वाह ..... ये तो कमाल हो गया। कौतुकी का मैसेज देख हर्ष हमेशा की तरह प्रफुल्लित हो उठा।

मैसेज में था-

हेलो हर्ष ! शुक्रवार को मैं तुम्हारे शहर में रहूंगी। मिलना चाहूंगी। कोशिश करना मिल लेना। बहुत दिन हो गए मिले हुए।

हर्ष के चेहरे पर मुस्कान आ गयी। मिनटों में वो स्कूल के दिनों में पहुंच गया। कोचिंग क्लास में ही तो पहली बार देखा था हर्ष ने उसे। सिंपल सलवार सूट में वो गज़ब की प्यारी लग रही थी। कुछ अलग ही था उसमे। पहली नज़र में ही हर्ष पागल हो चुका था। सपने भी देखता तो कौतुकी के। कोचिंग समय से पहले पहुंचने की वजह थी कौतुकी ताकि कोई भी पल व्यर्थ न जाये। क्लास चालू होने से ख़त्म होने तक हर्ष कौतुकी को ही देखता और क्लास ख़त्म होने के बाद भी गाहे - बगाहे क्लास से निकलते वक़्त उसके बगल से गुजरने या उसे छूने का भरसक प्रयास करता लेकिन डर की वजह से दिल की धड़कन बढ़ जाती और क्लास के पूरे समय में बनाया हुआ यह प्लान व्यर्थ चला जाता। जिस दिन कौतुकी कोचिंग नहीं आती उस दिन तो मानो समय कटता ही नहीं। यह सिलसिला जो क्लास नवीं में चालू हुवा वह बारहवीं तक चला। और परिणाम वही ढाक के तीन पात।

उस दौर में मोबाइल फ़ोन प्रचलन में आना शुरू ही हुए थे और बहुत भोकाली और रईस लोगों के पास हुवा करता था। ले दे के लैंड लाइन ही हुवा करता था। उसकी ऐंठन भी अलग। बड़ी मुश्किल से कौतुकी के घर के लैंड लाइन का नंबर निकाला गया और हिम्मत करके फ़ोन भी लगाया गया पर बात करने की हिम्मत नहीं हुयी। इतना ही नहीं - साइकिल लेकर कौतुकी के घर के बगल से भी निकला गया लेकिन क्या मजाल जो कौतुकी के घर की तरफ नज़र घुमा लेते। घर के पास पहुँचने तक घबराहट इतनी बढ़ चुकी होती थी की नज़र दूसरी तरफ कर लेते कि कहीं गलती से कौतुकी घर के बहार न मिल जाये और नज़रें मिल जाये।  फिर क्या घर के सामने से गुज़रते हुए नज़र दूसरी तरफ, जैसे हम तो बस यूँ ही घूमने निकले हों और कौन कौतुकी और कौन कौतुकी का घर। चेहरे पर ऐसे भाव जैसे ये रास्ता तो सामान्य रास्ता है और हम यहाँ से रोज़ गुज़रते हों।

बारहवीं के बाद हर्ष इंजीनियरिंग करने चला गया। वहां से भी कई बार फ़ोन पर बात करने की कोशिश की गयी। पर सोचता कि क्या बात करेगा। क्या सोचेगी वो। इसका भी हल निकाला गया कि बोल दूंगा की सीनियर रैगिंग कर रहे हैं और एक लड़की को फ़ोन लगाने को बोले हैं वरना खैर नहीं, इसलिए डर के मारे फ़ोन करना पड़ा। खुश तो बहुत थे। प्लान फुलप्रूफ था।  हिम्मत की और एक दोस्त का फ़ोन लिया। रिलायंस का cdma फ़ोन। उस उम्र के लोग अच्छे से समझेंगे की रिलायंस का cdma  क्या चीज होती थी।  खैर, फ़ोन लगाया गया ... घंटी बजी।  प्रत्येक घंटी के साथ दिल की धड़कने बढ़ती जा रही थी।  फ़ोन उठने तक तो पैर भी काँपने लगे।
कॉल पिक हुयी.......
हेलो..... 
हर्ष-हेलो
कौन!
हर्ष - हेलो
अरे आप बोलेंगे भी!
हर्ष - जी! राहुल से बात हो जाएगी।
कौन राहुल ?
हर्ष- जी ये राहुल का घर है न ?
जी नहीं।
हर्ष - अक्कछ्ह।  अच्छा सॉरी।
और फ़ोन कट। 

बस ये पहली और आखिरी कॉल थी हर्ष की कौतुकी को। इस घटना का अपराध बोध या फिर डर हर्ष के दिल में ऐसा छाया कि उसने कौतुकी से बात करने के विषय में सोचा भी नहीं। इतना डर - किस चीज का।  ये हर्ष को आज तक नहीं पता चला।  शायद वो ऐसा ही था।

इंजीनियरिंग ख़त्म होने को थी। समय बड़ी तेजी से निकल गया। इस बीच में शायद ही हर्ष ने कौतुकी को याद किया हो।  चूँकि उस दौर में सोशल नेटवर्किंग का प्रचलन उतना अधिक नहीं था और थोड़ा बहुत ही प्रयोग में था। फ़ोन पर फेसबुक का प्रयोग अति स्मार्ट लोग ही किया करते थे। चूँकि हर्ष इंजीनियरिंग का विद्यार्थी था तो यो (YO ) तो उसे होना ही था। प्लेसमेंट का दौर चल रहा था।  हर्ष इंटरव्यू के लिए तैयार होकर प्लेसमेंट सेल को भागा जा रहा था। तभी उसके मोबाइल पर एक टोन बजी।  उसने देखा तो फेसबुक नोटिफिकेशन था। मैसेज था।

हेलो ! तुम हर्ष हो न !
हर्ष- ध्यान से देखा तो ये तो एक लड़की का मैसेज था। रिसर्च हुयी। अरे वाह ! ये तो कौतुकी थी। हेलो - तुम कौतुकी हो न !
अरे वाह ! तुम तो पहचान गए ! मुझे लगा कि भूल गए होगे।
हर्ष- ख़ुशी छिपाते हुए , अरे ! बचपन के दोस्तों को कोई भूलता भी है क्या।
दोस्त ! कैसे दोस्त ? हमने तो कभी बात भी नहीं की। 
हर्ष- हाँ। (झेंपते हुए ) तुम्हारी बात भी सही है।
अरे छोड़ो ये सब।  मैं भी क्या ले के बैठ गयी। सुना है इंजीनियर बन गए हो ! बड़े आदमी बन गए हो। मुझे तो लगा कि  पहचानोगे नहीं। फेसबुक पर देखा तो कोचिंग की याद आ गयी। इसीलिए बात कर लिया। 
हर्ष- अच्छा किया ! और तुम्हे कोई क्यों नहीं पहचानेगा भाई।  तुम तो........
तुम तो क्या ?
हर्ष- अरे छोड़ो भी ! और बताओ।  कैसे हो ? कहाँ हो आजकल ?
मैं बेंगलुरु में हूँ। ओफिस में। 
हर्ष- अच्छा ! ऑफिस ! अरे वाह।  बड़े बड़े लोग!
अच्छा हर्ष तुमसे शाम में बात करुँगी। अभी थोड़ा काम निपटा लूँ।

और फिर हर्ष ने फ़ोन को जेब में रखा और प्लेसमेंट सेल की ओर भागा।(हर्ष आज बहुत खुश था और शाम को लेकर उत्साहित। )

फिर क्या। बातें चालू हुयी। दोस्ती हुयी और फिर प्यार भी हुआ। इस बीच हर्ष की जॉब भी लग चुकी थी। दिल्ली में। कौतुकी  अभी भी बेंगलुरु में थी। मौका मिलने पर एक दूसरे के शहर आना जाना और मिलना जुलना होता रहता। सामान्य मीटिंग, ज्यादा कुछ नहीं। कई बार हर्ष ने आगे बढ़कर शादी जैसे महत्वपूर्ण निर्णय के बारे में भी सोचा। पर हिम्मत न कर पाया। कौतुकी ज्यादा हिम्मत वाली निकली। उसने कई बार अपने दिल की बात खुलकर कही किन्तु हर्ष हिम्मत नहीं दिखा पाया।

समय बीतता गया और फिर एक दिन कौतुकी ने हर्ष को अपनी शादी तय होने की खबर हर्ष को दी।

उस रात हर्ष सो नहीं पाया था। रात भर सही-गलत के उधेड़ बुन में पड़ा रहा था। कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। और अंत में कदम पीछे खींच लिए गए थे। इसके लिए सामाजिक ताना-बाना किसी हद तक जिम्मेदार था। दोनों समझदार थे। उसके बाद कभी बात नहीं हुयी।  सोशल नेटवर्किंग का दौर चरम पर पहुँच चुका था अब। तो सारी जानकारी मिलती रहती थी।

और आज इतने दिनों बाद कौतुकी का मैसेज और मिलने के लिए बोलना सारी पुरानी यादों को ताजा कर गया। हर्ष ने मिलने को लेकर दुनिया भर के ख्याल बुन डाले। और इस मुलाकात को यादगार बनाने के लिए एक निशानी भी खरीद ली।(निशानी के बारे में फिर कभी )

शुक्रवार का दिन। हर्ष भी एकदम तैयार होकर निकला, किन्तु किसी वजह से कौतुकी को लेट हो गया। पूरा दिन मन मसोस कर हर्ष ऑफिस में ही बैठा रहा और कौतुकी के फ़ोन का इंतजार करता रहा। शाम पांच बजे कौतुकी का फ़ोन आया।  कौतुकी ने जगह बता दी और आने को बोला।  हर्ष ने भी आनन फानन में कार उठायी और चल पड़ा। तय जगह पर कौतुकी इंतजार कर रही थी। काली साड़ी - वाह ! क्या बात ! हर्ष के मन में कई ख्याल एक साथ जग गए। बला की खूबसूरत लग रही थी कौतुकी।

कार में आकर कौतुकी ने हर्ष को मुस्कुरा कर देखा।  और ! कैसे हो !
हर्ष- बढ़िया। और तुम ?
मैं भी बढ़िया।
हर्ष - फिर ! क्या प्लान है ?
कुछ नहीं। बस गाड़ी चलाते रहो। 
मतलब ! अरे कहीं तो चलना होगा ! कहीं चलते हैं ! आराम से बैठेंगे ! डिनर करेंगे। बातें भी हो जाएँगी !
नहीं। कुछ नहीं। बस गाड़ी चलाते रहो। मुझे कहीं नहीं जाना। इसी गाड़ी में बात कर लेंगे। 
हर्ष को कुछ भी समझ नहीं आया और वह चुपचाप गाडी चलाता रहा।

तीन घंटे की ड्राइविंग में ढेरों बातें हुयी। दोनों ही मैच्योर हो चुके थे। न कोई शिकवा - न कोई शिकायत। जिंदगी को लेकर ढेरों बातें। क्या थे और क्या हो गए।  जिंदगी कितनी तेज बीत रही है! लाइफ को लेकर क्या प्लान है। आगे ये करना है - वो करना है ! जॉब स्विच करनी है। घर लेना है इत्यादि ! इतनी फॉर्मल मुलाकात ! हर्ष ने जितना सब कुछ सोचा था कि मिलेंगे तो ये कहेंगे वो कहेंगे ! ये करेंगे वो करेंगे ! लेकिन ऐसा कुछ सोचने या करने का मौका नहीं मिला। दिल की बातों को हर्ष दिल में ही दबा गया।

समय हो चुका था। कौतुकी को निकलना भी था। हर्ष ने कौतुकी को बेमन से उसके बताये हुए जगह पर छोड़ दिया। पर ये क्या ! जाते -२ कौतुकी ने हर्ष को जोर से गले लगा लिया। हर्ष चौंक गया। ( वैसे चाह तो हर्ष भी यही रहा था लेकिन कौतुकी के फॉर्मल से व्यवहार को देखकर उसने अपनी इच्छा को दबा लिया था। ) हर्ष ने भी कौतुकी को कस लिया। कुछ सेकण्ड्स के बाद कौतुकी ने खुद को छुड़ाते हुए कहा - अच्छा तो अब जाओ ! फिर मिलेंगे !

तभी हर्ष को याद आया कि इस मुलाकात को यादगार बनाने के लिए वो एक निशानी लाया है। उसने तुरंत कार से वो चीज निकाली और कौतुकी को देते हुए बोला - सोचा तो था कि तुम्हे खुद पहनाउंगा किन्तु मौका ही नहीं मिला। अब इसे रख लो और खुद पहन लेना। और मुझे पिक्चर भेज देना। कौतुकी बोली - ठीक है ! अब जाओ।

लौटते समय हर्ष कार में आज की मुलाकात को लेकर मुस्कुरा रहा था। दोनों के दिलों में एक-दूसरे के लिए जो आग थी वो अब  भी बाकी थी किन्तु दुनियादारी की राख ने उसे पूरा ढक लिया है। जो दिखती तो नहीं है किन्तु दहक रही है। इसी दहक की आंच को ही दोनों ने एक-दूसरे को गले लगने के दौरान महसूस किया और एक साधारण सी मुलाकात को  असाधारण और यादगार मुलाकात में बदल दिया।

हर्ष का मन बस यही गुनगुना रहा था -

यक़ीं नहीं होता ख़ुद की क़िस्मत पर मुझे
ये सपना तो नहीं कहीं कोई काटो चुटकी मुझे
इतने नज़दीक हैं वो मेरे कि कोई सम्हालो मुझे
कैसे रखूँ क़ाबू में ख़ुद को चढ़ रहा नशा मुझे ।

छूँ लूँ उसे कि हो जाए यक़ीं मुझको
कैसे बढ़ूँ उसकी ओर कि लगता डर मुझको
आँखें ये ठहरती ही नहीं कि लगती चौंध मुझको
उनका आफ़तबी चेहरा कर रहा रोशन मुझको ।

ख़ुदा करे ये पहिया समय का ठहर जाए यहीं
क़ैद कर लूँ उन्हें अपनी आँखों में न जाने पाए वो कहीं
थाम लो दिल की धड़कनो को बनो बेसब्र नहीं
वो आएँ हैं मिलने क्या इतना ही काफ़ी नहीं ।

मासूमियत तो देखो उनकी जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं
नैनों से लिख रही हो इबारत कि बन रही है कहानी नयी
लगायी है तुमने जो आग कि वो अब बुझेगी नहीं
कलमबंद कर लूँ इन्हें कि ये कोई आम मुलाकात नहीं।


Thursday, 4 July 2019

मासूमियत-एक हथियार!

मासूमियत मासूम न रही,
किसी हथियार से कम न रही।
होता इसका बख़ूबी इस्त्माल,
करने को क़त्ल सरे आम।
शौक़ हमने भी रखा,
हथियारों के ज़ख़ीरे का,
डिस्प्ले में नित बढ़ता रहा,
हथियार नए क़रीने का।
आज यूँ ही ख्याल आया,
सुना बाज़ार में नया हथियार आया।
चलो हथियारों के दुकान पर चला जाय,
चलो वो वाला नया हथियार लाया जाय।
ज्यूँ ही हमने दुकान पर क़दम रखा,
दुकान वाले ने एक तगड़ा सलाम ठोंका।
कुछ पूँछता उससे पहले मेरी नज़र उस पर पड़ी
सबसे महँगे हथियरों में मासूमियत ही मिली।

चेहरे....

चेहरों के इस संसार में बस एक चेहरा ढूढ़ता हूँ,
चेहरे पर न हो कोई और चेहरा, वो चेहरा ढूंढता हूँ।

चेहरों के इस बाज़ार में चेहरे सभी रंग बिरंगे हैं,
रंग बिरंगे इन चेहरों में मैं एक रंग पक्का ढूढ़ता हूँ।

तासीर मेरी पानी सी मैं रूप बड़ा बेजोड़ रखता हूँ,
ढल जाता हर रूप में, मैं रुख लचीला बहुत रखता हूँ।

वो कहते हैं कि आनन्द तू चेहरे पर मुस्कान बहुत रखता है,
क्या बताऊँ कि मैं दर्द को दवा में बदलने का हुनर खूब रखता हूँ।

Wednesday, 3 July 2019

क्या खोया-क्या पाया!

इतनी भाग दौड़ के बाद बस यही नतीजा निकला,
न कभी फ़ुर्सत मिली और न ही कोई काम निकला !

ज़िंदगी तुझे तो हम कभी समझ ही न सके,
उलझनों को सुलझाते रहे पर न कोई हल निकला !

जब भी हमको लगा तुझे पहचानने लगे हम,
जब जब पर्दा उठा तब तब चेहरा नया निकला !

आरज़ू थी कि एक शाम होगी और तेरा साथ होगा,
इंतज़ार में हो गयी रात न जाने कब ये दिन निकला !

ये तो कुछ शब्द हैं जो निभा रहे हैं तेरा साथ,
वरना दुनिया की इस भीड़ में आनंद तू तो बेहद अकेला निकला !

क्या फायदा!

अब गुस्सा करना छोड़ दिया मैने......
किस बात से फर्क पड़ता है, ये बताने से क्या फायदा!

अब कोशिशें नहीं करता मैं......
जो अपना नही है, उसे समझाने से क्या फायदा!

तीर तो कई हैं तरकश में मेरे.....
जब हारना अपनों से है, तो चलाकर क्या फायदा!

मेरी खामोशी को मेरी कमज़ोरी समझते हैं.....
खो चुके है वो मुझको, अब उन्हें बताकर भी क्या फायदा!

ये रात यूँ ही बेलज्जत बीत रही है......
उनके आने की कोई खबर नही, इंतज़ार का क्या फायदा!

जिंदगी गुजर रही है न जाने किस नशे में......
किधर जाना नही है पता, अब होश में आने का क्या फायदा!

अधूरी ख़्वाहिशें...

कुछ ख़्वाहिशें अधूरी सही,
जीने की वज़ह धूढ़ने की ज़रूरत तो नही!