Tuesday, 24 March 2020

प्रकृति और महामारी...

जितनी धूल चढ़ी थी जिन्दगी की किताब पर सब साफ हो गई,
एक अदृश्य प्रहार प्रकृति माँ की हम सबकी आँखे खोल गई।

धरा रह गया सारा ताना बाना आज हमारे ज्ञान का,
दम्भ ढह गया सब जीवों से होना हमारे महान का ।

ऐसी प्रगति के हम सूत्रधार बन गए कि भूल गए जीवन को,
अब डर से घर में कैद हो गए बचाने को अपने-2 जीवन को।

ज्ञान-विज्ञान ने दी तेजी हमको पहुंच गए हम मंगल और चाँद पर,
वही तेजी अब भारी पर गयी देखो पूरी मानव प्रजाति के प्राण पर।

बाहर दीवारों पर रंग-रोगन करते रहे हम अन्दर से खोखले हो गए,
अंधी भौतिकता की प्रगति में हम जीवन के सारे बेसिक भूल गए।

चलना था साथ सभी को पर हम तो दौड़ में आगे निकल गए,
ऊंचाई तो बहुत मिली हमें पर देखो हम वहां अकेले रह गए।

कुछ प्लेटों में सब कुछ था पर देखो उनको खाने की भूख न थी,
और समाचार में उस गरीब की मौत की वजह बस उसकी भूख थी।

एक से दो, दो से चार और देखते-2 न जाने हम कितने करोड़ हुए,
इस धरा पर रहते और जीव भी वे बेघर और खत्म बेजोड़ हुए।

कहते रहे कबीर कि मानव मत लो किसी बेबस की हाय,
मुई खाल की स्वांस से सुन लो सभी सार भस्म हुइ जाय।

दोहन प्रकृति का हमने खूब किया न जाने कितनी भूख थी,
जिस धरती पर खड़े हुए थे वो अब अन्दर से खोखली थी।

कोरोना तो बस बहाना है प्रकृति माँ कर रही सभी जीवों में संतुलन,
उसे भी तो करना है अपने सभी बच्चों का पोषण और लालन-पालन।

मौका है अभी सुधार जाओ और कर लो तुम सारे गुनाह कुबूल,
दो परिचय अपने विवेक का और मान लो झुककर सारी भूल।

धरती माँ है अपनी दिल उसका भी इक दिन जरूर पिघलेगा,
जब मानव बच्चों सा निर्मल-सरल दिल लेकर बाहर निकलेगा।

सब जीवन का सम्मान हो अब से, न कोई छोटा और बड़ा होगा,
अब धरती माँ को मिलकर हम सबको या विश्वास दिलाना होगा।

Tuesday, 10 March 2020

दिल की बात...

दिल का दर्द कागज़ों पर उतरने से पहले
बोल दे दिल की बात समय गुज़रने से पहले।

पन्नों को स्याह करने से केवल बेकरारी बढ़ती है 
वो शख़्श बिछड़ जाए तो दर्द भारी शायरी होती है।

मिलता नही वो इंसान कभी दोबारा ज़िन्दगी में
वक़्त गुज़रता है फिर उसके नाम की बन्दगी में।

चल उठ कुछ हाथ पैर हिला ले, काहिल न बन,
अंजाम की फिक्र छोड़ कर, बस दिल की बात सुन।

रूप...

उजड़ा हूँ,
मग़र खत्म नही,
वक़्त की आँधी में
रूप मैंने खोया नही।

कहानी मेरी लिखेगा,
इतिहास बड़े गर्व से,
अवशेष मेरे बोलेंगे कि,
ये रूप पाया मैंने संघर्ष से।

अमावस!

रात में चांद और
जीवन में तुम...
बिन दोनो 
केवल अमावस !

महिला दिवस...

रंग हज़ार 

जीवन में बहार 

होने से तेरे 

नित त्योहार।


करूँ न्योछावर तुम पर ये एक दिन कैसे ? 
ये एक दिन भी तो तेरा दिया हुआ है।

साकी और नशा!

वो हमारे नशे का हिसाब लगाने लगे,
कैसे पीते हैं आज वो हमें समझाने लगे।

अब अपनी तारीफ हम खुद क्या करते,
दे दिया पता जहां हमारे साकी रहते।

मिलकर उससे उनकी ग़फ़लत दूर हो गई,
उन्हें मेरी साकी खुद मेरे नशे में मिल गई।

बिंदी और कहानी!

सुबह के आइने में तुमने माथे की बिंदी खिसकी पाई, 
बिंदी को ठीक करने में तुम खुद से शरमाते हुई मुस्कुराई।

पूर्णता के एहसास के संग आंखों में खूबसूरत चमक थी,
सुंदर तेरे चेहरे पर आज पहले से भी अधिक दमक थी।

व्यक्त करने को इन अनुभवों को अभी शब्दों की उत्पत्ति बाकी थी।
रात की कहानी बयाँ करने को तेरी शर्मीली मुस्कान ही काफी थी।