Friday 14 August 2020

शहर धुल गया...

तुम्हें आदत थी नए अनुभवों को लेने की,
होकर मलंग देश दुनिया घूमते रहने की।

हमें अपना शहर पसंद था सो यहीं रह गए,
अपनी आदतों के कारण हम दूर हो गए ।

लो हो गयी बारिश, ये शहर धुल गया!
आ जाओ, अब ये फिर से नया हो गया......🤗

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/१४.०८.२०२०

Tuesday 11 August 2020

अलविदा राहत साहब

जहाँ पहुँच कर मिलती राहत,
वहाँ को रुख़सत हुए आप राहत!

यूँ बेबाक़ शब्दों में अब कौन गुनगुनाएगा ?
बेख़ौफ़ होकर सियासत को आँखें कौन दिखाएगा ?

सत्ता के आगे जहाँ रुंध जाते हैं गले सबके...!
हुकूमत को उसकी औक़ाद कौन दिखाएगा ?

माना कि तेरा जाना तय था, सबका है!
तेरे जाने से ख़ाली हुयी जगह अब कौन भरेगा?

तू गया मगर विरासत में इतना कुछ छोड़ गया .....
इस ख़ज़ाने को देख तू हमको सदा याद आएगा ........

जब भी खुद को अकेला और कमजोर पाएँगे....
तेरे शब्दों की ताक़त से खुद को मज़बूत पाएँगे!

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/११.०८.२०२०

Sunday 9 August 2020

लखनऊ-एक खोज....!

मूलतः लखनऊ का नही हूँ मैं ! लेकिन २००६ से अध्ययन और नौकरी के चलते इससे जुड़ा रहा। वैसे लखनऊ से होकर गुजरना बचपन से ही होता रहा। पता नही क्यूँ इस शहर को लेकर मेरे मन में एक अलग कौतूहल और नजरिया होता था कि नवाबी शहर है, बड़े लोग रहते होंगे, कुछ अलग मिज़ाज के लोग मिलेंगे- बिल्कुल नवाबी, साहित्यिक टाइप, नृत्य और संगीत का शौक रखने वाले आदि-२। अवध की शाम कुछ खास होती होगी! जो कि बहुचर्चित भी है। शाम होते ही महफ़िलें सजती होंगी।लोग इकट्ठा होते होंगे। शेरो-शायरी का दौर और लतीफों के संग ठहाकों की गूंज। मेरा मानना था कि यहाँ की महफ़िलें और शहरों से कुछ जुदा होती होंगी। जब भी टेम्पो में बैठता और टेम्पो गोमती नदी को पार करते हुए लखनऊ यूनिवर्सिटी के बगल से गुजरता तो भाई-साहब पूछिये मत! क्या साहित्यिक और रेट्रो वाली फीलिंग आती थी हृदय में। एक गज़ब की ऐंठन उठती थी रोम-२ में। इस पर कहीं टेम्पो वाला ये गाना बजा दे- चलते-२ यूँ ही कोई मिल गया था..... सरे राह चलते-२ (पाकीजा)! तो मैं अपने अंदर के ज़हर को खुद नहीं सम्भाल पाता था और नीला हो जाता था😁। मेरी कल्पनाओं और टेम्पो वाली वास्तविकता दोनों मिलकर बिल्कुल अलग ही दुनिया के रास्ते खोल देती थीं। कोई थोड़ा और धक्का दे देता तो मैं पृथ्वी पर मिलता ही नहीं। 

खैर....! नौकरी लगी। लखनऊ ही पोस्टिंग मिली। पोस्टिंग के शुरुवात में ही चौक क्षेत्र के बिजली अधिकारी। एक बार को तो विश्वास ही न हो कि मेरे साथ इतना अच्छा कैसे हो सकता है! चौक में मेरे जे०ई० रहे गोयल जी और थारू जी। बिल्कुल बिंदास प्रकृति के लोग। गोयल जी का गायन, मेरा कविता पाठ और थारू जी का आदर्श श्रोता होना एक किलर कॉम्बिनेशन था। शाम होते ही हम चौपाल लगा लेते। मेडिकल कॉलेज बिजलीघर की शाम शानदार होती थी। यूनिवर्सिटी से पढ़ कर आया था और मेडिकल यूनिवर्सिटी कैंपस में बैठकर मेडिकल स्टूडेंट्स को देखना मुझे हमेशा बी० एच० यू० पहुँचा देता। आखिरकार कॉलेज से निकले अभी दिन ही कितने हुए थे ! कुड़िया घाट की चर्चा कभी और होगी। कुछ दिन तो अच्छा लगा। फिर उसके बाद एक बेहद ही कम अन्तराल पर लखनऊ में ही अन्यत्र तैनाती मिल गई। 

लखनऊ की झलक मुझे कुछ हद तक आफताब सर और अफसर हुसैन साहब में देखने को मिलती थी और उनके साथ बैठने में अच्छा भी लगता था। गज़ब की उर्दू अदब में लिपटी जुबान। कसम से बस सुनते ही रहे आप उन लोगों को। उस समय मेरा कार्यालय रेजीडेंसी के बगल वाले लेसू भवन में हुआ करता था। यहाँ तक तो ठीक था, मुझे लखनऊ का एहसास होता रहता था। दीप होटल में दोस्तों के साथ बैठना और फरमाइशी ग़ज़लों का दौर भी लखनऊ को ज़िंदा कर देता था कभी-२। दीप होटल जैसा होटल पूरे लखनऊ में नहीं। फिर समय बीतता गया और व्यस्तता बढ़ती गई। इस दौरान ४-५ वर्षों में कई लोगों से मुलाकात हुई। कुछ बड़े तो कुछ छोटे! सबमें कुछ न कुछ ढूंढता रहता। शायद जो लखनऊ मैं ढूंढ रहा था वो अब लोगों में बचा ही नहीं था। 

इसके बाद मैंने अपनी लेखन के शौक पर ध्यान देना प्रारम्भ किया। कुछ पुस्तकों को शौकिया प्रकाशित भी किया गया। और फिर इस शौक ने थोड़ी पहचान दिलाई। जनाब वाहिद अली वाहिद साहब से भी साक्षात मुलाकात हुई। मेरा सौभाग्य था और आज भी है। लेखन की वजह से इंदौर जाने को भी मिला और कल्प एशिया के संयोजकों और संस्था से जुड़े कुछ अच्छे लोगों से मिलने को मिला! फिर उन लोगों को अपने लखनऊ भी बुलाया गया। लखनऊ यूनिवर्सिटी में एक साहित्यिक कार्यक्रम भी किया गया। बृज मौर्या और राम आशीष के सहयोग से। एक हरफनमौला किरदार पवन उपाध्याय जी से भी मुलाकात हुई। इस दौरान लखनऊ को करीब से जीने का मौका मिला। इतना सब कुछ किया गया तो केवल लखनऊ की खोज में ही। लखनऊ मिला लेकिन टुकड़ों में। टुकड़ों में इसलिए कह रहा हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी जरूरतों और इस टेक्नॉलजी के युग में आवश्यकता से अधिक व्यस्त हो गया है। व्यस्तता इतनी कि अब सुबह के बाद रात होती है, दोपहर और शाम नहीं होती। लखनऊ की शाम को मत खोजिये, वो अब नहीं मिलती। 

नौकरी में प्रोन्नति मिल चुकी है। शायद लखनऊ छोड़ने का समय भी आ गया है। लेकिन मन असंतृप्त है। एक खोज है जो अधूरी रह गई। वो शाम नहीं मिली जिसकी कहानियाँ सुनते थे। कुछ महफ़िलों के आयोजन होते हैं किन्तु उनका मजा लेने के लिए आपका वी० आई० पी० होना जरुरी है लेकिन उनमें मजा नहीं होता केवल आव भगत करने या कराने में समय जाया जाता है। वो महफ़िल नहीं मिली जिसमें लखनऊ वाली गर्म-जोशी, मेहमान-नवाजी, शेरो-शायरी, संगीत, ग़ज़ल और लाल-काली युग्म की साड़ी में लिपटी तुम से एक हसीन मुलाकात हो 😍😛! खैर ......  उस शाम की खोज अभी जारी है। लखनऊ में लखनऊ को खोज ही लेंगे......... एक दिन !

यदि लखनऊ से होकर गुजरना चाहते हैं तो नीचे दिए लिंक को जरूर चेक करें ! आपको अच्छा लगेगा। 



~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/०९.०८.२०२०



Saturday 8 August 2020

कहाँ गए वो दिन !

एक व्यस्त दिन हो ! इतना व्यस्त कि ख़ुद की ही खबर न हो ! सर भन्नाया हुवा हो ! क्या कर रहे हैं और वाक़ई में क्या करना है, कुछ समझ न आ रहा हो ! जैसे-तैसे काम निपटाया गया ! शाम हो गयी ! फिर कुछ सोचें कि इससे पहले आपके घनिष्ठ मित्र का फ़ोन आ जाए !

अबे चलो कहीं बैठते हैं !

कहाँ?

अबे अपने अड्डे पर !

अच्छा वहीं ....!

हाँ!

ठीक है। मिलो वहीं पर । निकल रहा हूँ । 

बस सारा तनाव अपनी पसंदीदा पेय के अन्दर जाते ही छू मंतर 😆! पता नही कहाँ गए वो दिन ? इस मनहूस काल में उन दिनों की चर्चा करना ही कितना सुखद है और साथ में वो चीज़ अब न जाने कब करने को मिलेगी इसका दुःख भी ☹️🧐

आप भी ऐसे सुखद पल और अपना वर्तमान दुःख यहाँ साझा कर सकते हैं । खली बैठे हैं हम तो चर्चा कर ली जाएगी 🤣

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/०८.०८.२०२०

फ़ोटो ०५.०७.२०१७ की है ।

Friday 7 August 2020

अग्नि!

ख़ाली बैठे समय का उत्पाद है ये फ़ोटो ! लेकिन ग़ज़ब का है ये फ़ोटो। व्यक्ति के भीतर के अग्नि तत्व को दर्शाती ! जीने के लिए ज़रूरी तापमान को बनाए रखने के लिए कई तरह के ईंधन की आवश्यकता होती है। भोजन के सिवा भी कई ईंधन हैं जो इस आग को बनाये रखने के लिए ज़रूरी हैं जैसे - इच्छाएँ, जिम्मेदारियाँ, ज़रूरतें और चाहत....! इच्छाएँ और चाहत में अन्तर है इच्छाएँ जीवित या मृत किसी भी वस्तु की हो सकती है किन्तु चाहत केवल जीवित तत्व की होती है। ये मेरा अपना दर्शन है। ये आग यूँ ही इतनी तीव्र नही है ......! भड़की है ये ...... केवल तुम्हारी चाहत में .............।

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/०७.०८.२०२०

Wednesday 5 August 2020

राम राज्य .......!

०५ अगस्त २०१९ दिन बुधवार,
तिथि ये कोई साधारण नहीं,
चेहरे आज ये जो शांत दिख रहे,
इनमें छुपा वर्षों का संघर्ष कहीं।  

इतिहास तो हमने बहुत पढ़ा था,
आज आँखों से बनते देख रहा हूँ,
गर्व का क्षण है और खुश-किस्मती मेरी,
कीर्तिमान का शिलान्यास देख रहा हूँ। 

राम नाम में ही छिपी,
न जाने कितनों की दुनिया,
चेहरे सबके सूखे थे,
प्यासी थी सबकी अँखियाँ।

जिस अयोध्या प्रभु जन्म लिए,
जिस घर भरी किलकारियाँ,
रूप सुहावन राम लला का 
उनमें में बसती थी सारी खुशियाँ। 

ये कैसा दुर्भाग्य हमारा था,
प्रभु से छिना उनका घर-द्वारा था,
क्षीण हुवा गौरव कौशलपुरी का,
उजड़ा भक्तों का संसार सारा था। 

चहुँ ओर जब राम राज्य था,
कहते हैं सब नर में राम बसते थे, 
सभी दिशाओं में थी सम्पन्नता 
सुना है घी के दिए ही जलते थे। 

अब जब राम लला फिर से,
विराजेंगे अपने घर आँगन,
प्रभु राम की कृपा से देखो,
पूरा देश हुवा है मस्त मगन। 

गलत हुवा था या अब सही हुवा,
मैं इतिहास नहीं अब खोदूँगा,
राम राज्य की जो है कल्पना वो,
आये धरातल पर बस यही चाहूँगा। 

बहुत हो गया द्वंद्व दो पक्षों में.
अब न शेष कोई विषमता हो,
प्रभु भारत देश में अब तो बस,
हिन्दू मुस्लिम में सम रसता हो। 

हो जाएँ ख़त्म सारे भेद-भाव,
न ऊँच-नीच न कोई जात-पात,
समान शिक्षा और सबको रोजगार,
हो देश की उन्नति की बात। 

सबका साथ सबका विकास हो,
समानता, सम्पन्नता ही हो सर्वस्व,  
जगदगुरु बनने का मार्ग प्रशस्त हो,
स्थापित हो फिर से भारत का वर्चस्व। 

सियावर राम चंद्र की जय !

सबके राम, सबमें राम !

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/०५.०८.२०२० 







Sunday 2 August 2020

दरबारी कवि ;)

नौकरी में आया ही था..... सरकारी नौकरी ! वो भी सीधे पब्लिक से जुडी हुई। जनता से सीधा संवाद। शब्दों को सम्भाल कर, सामने खड़े व्यक्ति की भाव भंगिमा देखते हुए, एक ही काम के लिए अलग-२ व्यक्ति से बिलकुल अलग बात और भिन्न फेशियल एक्सप्रेशन के साथ प्रस्तुत करने की कला मैंने यहीं सीखी। क्या काम करता हूँ ये नहीं समझा सकता और न ही बता सकता हूँ :) खैर........ ! आगे बढ़ते हैं ! नौकरी में मैंने अधिकारी की इकाई पर ज्वाइन किया। सो कोई भी समस्या मुझ तक पहले आती थी। एक दिन कार्यालय में बैठा था. नयी नौकरी के एक या दो महीने हुए होंगे! बधाइयों का दौर अभी चल रहा था। घमंड, गर्व और ख़ुशी की कई मुद्राओं में एक साथ रहता था। मैं अपनी कुर्सी पर बैठा अपना काम निपटा रहा था तभी एक वृद्ध व्यक्ति का कार्यालय में प्रवेश हुवा। आते ही बोल पड़े - वाह! अतिउत्तम, इतनी छोटी उम्र में अधिकारी। मैंने अपने जीवन में बहुत कम ही देखा। मजा आ गया। अच्छा लगता है आप जैसी मेधा देखकर। लेकिन एक बात बोलूंगा साहब! आपको आईएएस की तैयारी करनी थी। आपने अपने साथ अन्याय किया। एक बेहद ही कम समय अन्तराल में वह सज्जन न जाने क्या क्या बोल गए। मुझे सम्भलने का मौका भी नहीं दिए। प्रशंसा की इतनी पंक्तियाँ सुनकर मेरा प्रोसेसर हैंग हो गया। किस पंक्ति को प्रोसेस करूँ और किस पर खुश होऊं। प्रत्येक पंक्ति पर इतनी जल्दी-२ खुश कैसे हुवा जाये। थोड़ा समय तो मिलना चाहिए। मैं इस सबमे इतना मंत्र मुग्ध था कि तब तक वो सज्जन एक कागज़ निकाल कर सामने रख दिए और बोले सर, इस पर एक हस्ताक्षर चाहिए आपके ! छोटी सी चिड़िया बिठा दीजिये! हम भी बिना कुछ सोचे समझे कलम निकाल लिए कि लाओ ये तो मेरे बाएँ हाथ का काम है! आखिर मैं अधिकारी जो हूँ। हस्ताक्षर लगभग हो ही गए थे कि मेरे जे० ई० ने मुझे टोक दिया! सर रुकिए! और कागज़ ले लिया। बुरा तो बहुत लगा लेकिन उनकी उम्र और अनुभव देखकर शांत हो गया। बाद में पता चला कि उन सज्जन के यहाँ चोरी पकड़ी गयी थी और मेरे हस्ताक्षर लेकर बचना चाह रहे थे। बच गया मैं उस दिन! 

शब्दों के प्रभाव को कमतर नहीं आँका जा सकता। मेरा अनुभव यही कहता है। लाख आपने डिग्रियां हासिल की हों, लेकिन शब्दों के प्रयोग की कला नहीं सीखी तो मान लीजिये आप चूतिये हैं ! शुरुवात के कुछ सालों को छोड़ दूँ तो मेरी नौकरी भी इसी की वजह से आसानी से चल रही है। बड़े-२ विद्वानों ने भी शब्दों के प्रयोग से ही महानता प्राप्त की है। इतिहास गवाह है। उठाकर देख लीजिये कोई भी पुस्तक। अब कुछ लोग इस कला को तेल लगाना भी कहते हैं। कहने दीजिये। बेचारे हैं वो लोग। इस कला से वंचित हैं........ कुछ तो बोलेंगे ही। सबसे ज्यादा इस कला में माहिर होते थे दरबारी कवि। किसी एक का नाम नहीं लूँगा। प्रत्येक राजा के दरबार में एक कवि तो होता ही था जिसे दरबारी कवि का दर्जा प्राप्त होता था। राजा के सम्मान में एक से एक कसीदे पढ़ा करता था। बहादुरी पर कवितायें लिखा करता था। जनता में प्रचार-प्रसार किया जाता था इन कविताओं का। जनता के मन में राजा को महान बनाने में इन रचनाओं का खासा योगदान होता था। इसीलिए दरबारी कवि का महत्व सर्वोपरि होता था। और इसी महानता की छवि की वजह से राजा को राज-काज चलने में आसानी होती थी। अब आप दरबारी कवि को तेलू तो नहीं बुला सकते :) 

दौर बदलता है किन्तु नियम नहीं बदलते। बस रूप बदलता है। आज भी दरबारी कवि मौजूद हैं। किसी व्यक्ति को भगवान तुल्य  महान बनाने के लिए उसकी कमियों को छुपाना तो पड़ता ही है और गुणों को बढ़ा-चढ़ा कर अलंकार में डुबो कर छंदों-चौपाइयों में लपेटकर परोसना पड़ता है। कमियाँ तो सबमें हैं लेकिन गिनी कमजोर व्यक्ति की ही जाती हैं। बड़े लोगों की नहीं! कभी नहीं। आज  के ज़माने में भी व्यक्ति को प्रभु बनाने की कला क्षीण नहीं हुयी है। २०१४ के बाद से तो इसका उत्तरोत्तर विकास ही हुआ है। विकास शब्द को गंभीरता से न लें ;) हाँ........ लेकिन दरबारी कवियों का रूप बदल गया है। आज कल ये काम न्यूज़ चैनल वाले करते हैं। प्रत्येक न्यूज़ चैनल वाला दूसरे न्यूज़ चैनल वाले से आगे निकले की होड़ में तो कभी-२ ऐसा कुछ भी बोल जाता है की कानों को विश्वास ही नहीं होता। मुझे याद है कि जब बचपन में रामायण और श्री कृष्णा देखते थे तो लगता था कि कोई समस्या नहीं होगी। प्रभु आएंगे और हाथ उठा कर दिखाएंगे, एक दिव्य रौशनी होगी और सब ठीक। मैं तब देश के नेताओं को भी इसी राम और कृष्ण भगवान की कैटेगरी में रखता था। मुझे याद है कि टीवी पर एक बार कोई नेता बाढ़ की स्थिति का जायजा हवाई जहाज से कर रहे थे। मैंने पिता जी से कहा कि नेता जी हाथ दिखाकर सब सही क्यों नहीं कर देते तो पिता जी हंस पड़े। बिलकुल ऐसी ही हंसी मुझे न्यूज़ चैनल वालों पर भी आती है। किसी देश को धूल चटानी हो तो ये चैनल वाले भारत के प्रधान मंत्री की एक बेहद ही गंभीर भाव भंगिमा वाली फोटू दिखा देंगे कि मानो ये वही बाप हों जो गुस्से में बैठे हैं और दुश्मन देश वो लौंडा है जिसने आज गलती की है और अब सुताई होगी ! हाहा..... सोचकर ही हंसी आती है। मैं तो उस न्यूज़ एंकर के बारे में सोचता हूँ कि पढ़ा लिखा तो वो होगा ही और तब वो ऐसे चूतियापे कर रहा है, वो अपनी हंसी कैसे रोकता होगा। अरे भाई दरबारी कवि बनो....... ठीक है ! मौके की जरुरत है। लेकिन बकचोदी थोड़ा तो कम करो। हंसा-हंसा कर मारने का इरादा है क्या ?

देश की सेना पर नाज है और गर्व भी। बचपन में मार्च पास करने में सीना चौड़ा हो जाता था। कलाम साहब के बारे में सुनता था रोंगटे खड़े हो जाते थे। तिरंगा पिक्चर आज भी पसंदीदा है। हाँ फ्यूज कंडक्टर वाली थ्योरी बेहद ही बेसिक थ्योरी निकली। लेकिन कोई बात नहीं। मिसाइल उड़ान नहीं भर पाया और और देश बच गया। फिलहाल प्रत्येक देश की सेना को अत्याधुनिक हथियारों की जरुरत पड़ती है। मजबूत होना अच्छी बात है। सीमाएं सुरक्षित होंगी तो ही हम प्रगति के बारे में सोच पाएँगे। अब तो राफेल भी आ गया ! अरे ! न! न! आप जोश में खड़े क्यों हो गए ? लगता है टीवी वालों का असर अभी बाकी है ! कोई न ! बैठ जाइये। वरना चीन के राष्ट्रपति को पसीना आ जायेगा और पाकिस्तान को हार्ट अटैक ! बैठे बिठाये दो देश नेस्त-नाबूत हो जायेंगे। आपसे बस इतना अनुरोध है कि चौड़े होकर किसी को गरिया मत दीजियेगा। टीवी और सोशल मीडिया पर बोलना अलग है और मोहल्ले में बाहर निकल कर बोलना अलग। किसी का दिमाग ख़राब हुआ तो पेले भी जा सकते हैं। मोहल्ले में ही चीन और पाकिस्तान सीमा जैसे हालात न बनाएँ। 

राम मंदिर बन ही रहा है। वैसे तो राम जी सदैव हमारे साथ थे किन्तु भव्यता अब अलग ही होगी। मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप पर राम जी का आशीर्वाद बरसे और आपके अंदर का दरबारी कवि जागृत हो जाये और आपको भी कोई मेरे जैसा अधिकारी मिल जाये तो आपका काम बन जाये। 

राम जी इस बार किसी डॉक्टर या शोध शास्त्री के रूप में जन्म लीजिये और इस कोरोना की वैक्सीन खोज दीजिये। घर में बैठे-२ कलह बढ़ रहा है वरना राम राज्य बाद में आएगा पहले घर में महाभारत हो जाएगी। बस ज्यादा कुछ नहीं चाहिए आपसे। देश तो राफेल के हाथों में सुरक्षित है और दरबारी कवियों की वजह से हम महानता के उच्चतम शिखर पर मंत्रमुग्ध होकर अपनी समस्याएँ वैसे भी भूल चुके हैं। इस कोरोना के बुरे दौर में मनोरंजन की कमी नहीं है। 

जोर से बोलिये अयोध्या पति श्री राम चंद्र जी की जय ! प्रभु आपकी कृपा सब पर हो। 

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/०२.०८.२०२०