Monday 26 October 2020

नज़रें

इन नज़रों की नज़र को.....
ये नज़रें न चाहें हटना नज़र भर को!

#बेमिसाल_आँखें
#लाजवाब_नजारा

©️अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२६.१०.२०२०

Sunday 25 October 2020

रेडियो जॉकी

आज सुबह ऑफिस जाते वक्त एफ० एम० पर महिला आर०जे० को बोलते हुए सुना। ऐसा नही है कि पहली बार सुन रहा था पर ध्यान पहली बार दिया। कितना अच्छा प्रस्तुतीकरण होता है, एक दिलकश आवाज़ और मिनट भर में कई तरह के भावों को शामिल करते हुए कितना स्पष्ट बोलती हैं ये महिला आर०जे०। दिल खुश हो जाता है। अचानक फिर मेरे मन में दो ख्याल आए-

१. क्या ये महिला आर० जे० शादीशुदा होंगी? वैसे मुझे नही लगता कि शादीशुदा महिलाएँ ऐसे बातें कर सकती हैं। उन्हें मुँह फुलाने, झगड़ा करने और लाख पूँछने पर रूठने का कारण न बताने के अलावा कुछ और नहीं आता। पत्नी का मुस्कुराता चेहरा तो एक पति के लिए बस ईद का चाँद है।

२. पहले बिन्दु का उत्तर अगर हाँ है तो फिर तो उनके घर में झगड़े होने की सम्भावना न के बराबर है और इस तरह अगले जन्म में किसी महिला आर० जे० से शादी पर विचार करना ही उचित होगा।

अनुरोध- नीलिमा जी इस पोस्ट को गंभीरता से न लें। ये केवल एक पल का विचार है जो रेडियो सुनते वक़्त आ गया था जिसे मनोरंजन स्वरूप इस पेज पर पोस्ट किया गया है। ये लेख एक लेखक की कल्पना है और व्यक्तिगत रूप से मेरा इस विचार से कोई सम्बन्ध नहीं है।

©अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२२.१०.२०२०

Monday 12 October 2020

प्रकृति सौंदर्य

अद्भुत है प्रकृति की सत्ता,
रची है खूबसूरत कविता।
शब्द कहाँ इतने ख़ूबसूरत ,
फूल-पत्तियों की ये कविता।

श्रृंगार कौन करता
रूप ये कैसे मिलता
बहारों का मौसम ये 
तिनका-२ रिसता।

रूप ये करता मोहित
साँसों को सुगंधित
रोम-रोम हुआ हर्षित
और हृदय प्रफुल्लित।

होकर इनसे प्रेरित
मानव करता निर्मित
श्रृंगार के तरीके सौ
करने को उनको मोहित।

रूप दुल्हन सा होता है
बाँधने को दो दिलों को
फूलों सी मुस्कान जरूरी 
तन से रूह तक उतरने को।

देखो ये फूल भी अब तो,
बनके श्रृंगार सामने हैं नजरों के,
सँवरने की क्या जरूरत, तुम बस
चले आओ दिल की ठंडक को।

©️अनुनाद/आनन्द कनौजिया/१२.१०.२०२०

Saturday 10 October 2020

ये रात आती क्यों है?

एक शाम की उम्मीद है अब मिलती नहीं क्यों है?
ये रात कमबख़्त तेरे बिना चली आती क्यों है?

बीतती शाम और आती रात से होती अब घबराहट क्यों है?
ये चाँद, सितारों और ठंडी हवा से होती शिकायत क्यों है?

अब तो छुट्टियों से डर लगता है न जाने ये मसला क्यों है?
बाहर का शोर तो ठीक लेकिन खामोशी से डर लगता क्यों है?

ये खाली सड़क, ये रोड लाइट ये सब खामोश क्यों हैं?
अकेले खड़ा मैं इधर, अगल-बगल में तू नही क्यों है?

बैठा हूँ बालकनी में शान्त मगर मन मेरा बेचैन क्यों है?
सब कुछ तो है पाया मैंने पर लगे कुछ खोया क्यों है?

खूबसूरत इन गमलों में फूल लगते इतने साधारण क्यों हैं?
खुशबुओं में इनकी मन मेरा तलाशता तेरा चेहरा क्यों है?

समय काटने को व्हिस्की है मगर इसमें न नशा क्यों है?
खत्म बोतल है पर अब न कोई हो रहा असर क्यों है?

दोस्त हों, दौर चले और बातें खूब हों मन ऐसा चाहता क्यों है?
उन बातों के दौर में जिक्र तेरा हो केवल, दिल चाहता क्यों है?

©️अनुनाद/आनन्द कनौजिया/१०.१०.२०२०

Monday 5 October 2020

चकाचौंध

कहते हैं तेरे शहर में चकाचौंध बहुत है,
मान लिया इन बातों में सच्चाई बहुत है।

होती नहीं यहाँ रात कि रोशनी बहुत है,
लेकिन मुझे फिर भी अफसोस बहुत है।

मन मेरा पागल तुझे यहाँ ढूंढता बहुत है,
कोशिशों के बावजूद नही राहत बहुत है।

तेरा चेहरा सामने न हो तो क्या बताएँ,
मेरी इन आँखों में रहता अँधेरा बहुत है।


©️अनुनाद/आनन्द कनौजिया/०५.१०.२०२०

तू या तेरी याद...