Wednesday 2 May 2018

शरारत-ए-इश्क

वो मिलने की चाह भी रखते है, वो प्यार भी ख़ूब करते हैं।
ग़लती से मिल जाए नज़र तो नज़र अन्दाज़ भी ख़ूब करते हैं।

वो माहिर हैं नज़रों के खेल में, नज़रों से वार ख़ूब करते हैं ।
जकड़ कर नज़रों के मोहपाश में, बेचारे दिल को घायल ख़ूब करते हैं।

जाने अनजाने छेड़ ही देते है, वो ख़्वाहिशें ख़ूब पैदा करते हैं ।
बढ़ा कर दिल में कसक, वो दीवानों को परेशान ख़ूब करते हैं।

दिन बीतता है उनको याद करके, वो शामों को हसीन ख़ूब करते हैं।
रोशन करके शमाँ रातों को, वो परवानो को क़त्ल ख़ूब करते हैं।

Friday 16 February 2018

प्यार.......एक शुरुआत!

इस दुनिया में हूँ पर ख़ुद में खोयी हुयी हूँ
पाने को तेरा साथ तेरे ही इंतेजार में हूँ ।

ख़ुश भी हूँ , बहुत हैरान भी हूँ ।
तुम्हें पाऊँगी या खो दूँगी, इस सवाल से परेशान भी हूँ।

कभी सोचा ही नहीं कि कैसी लगती हूँ,
पर अब तेरे सामने आने से भी डरती हूँ।

कैसी दिखती हूँ , कैसी लगूँगी तुम्हें, इसी सोच में रहती हूँ,
पसंद आने को तेरे अब मैं कोशिशें हज़ार करती हूँ।

ख़ुद की फ़िक्र कभी की ही नहीं मगर अब आइने के सामने हूँ ,
चेहरे पर मेरे आ गया है अजब सा निखार कि मैं तेरे प्यार में हूँ ।

Sunday 18 June 2017

हौसला .......

हे मन,
तू रख धीर
रह गंभीर
न हो विचलित
कदम न डगमगाएँ
हौंसले से
हो तत्पर
गतिमान रह
कर्मपथ पर।

बाधाएं आएंगी,
विवशताएं आएंगी,
कदम भी लड़खड़ाएंगे,
बातों के तीर से,
लेकर घायल हृदय,
हौसले से
कर मरहम
तू रुक मत
कर्म पथ पर।

ये दौर नही अपना,
ये लोग नही अपने,
आसां नही तेरी मंजिल,
ऊंचे तेरे सपने।
पूरे तुझे करने।
हौसला रख
ये खुदा तेरा
बढ़ता चला चल
कर्म पथ पर।

उम्मीद तुमसे,
आशाएं तुमसे,
तुझसे जुड़े लोगों,
की आंखों में चमक तुझसे।
सभी का आशीर्वाद तुमको।
हौसला रख
दुवाओं के आवरण में
खुद को रख सुरक्षित
कर्म पथ पर।

कटेगा अंधेरा,
रोशनी होगी,
चहुँ ओर उजाला होगा,
वो कांति तेरी होगी।
वो दौर तेरा होगा।
हौसला रख
बढ़ा लगन
तेरी अलग पहचान होगी
कर्म पथ पर!
कर्म पथ पर......................

Thursday 15 June 2017

मैं (सारांश)

मुझे बेहद गर्व है मुझ पर,
गर्व क्या, कह लीजिए कि घमंड है मुझ पर,
क्वालिफाइड हूँ ,
एक अच्छे ओहदे पर भी हूँ,
दुनिया सम्मान करती है,
बातों को मेरी तवज्जो भी देती है।
शान है सम्मान है, कमी क्या है मुझको!
खुद पर बेहद घमंड है मुझको।

किन्तु एक दिन अकेले में,
एक ख्याल आया दिल में,
बोरियत के उस समय में,
दिल में एक प्रश्न उठा,
जब स्वयं में सम्पूर्ण हूँ मैं,
फिर क्यों ये तन्हाई काटने को दौड़ती है!

दिमाग पर जोर देकर,
इस प्रश्न के हल की खोज में,
काफी हाथ पैर मारने के बाद
ये समझ आया कि
बिना मां बाप के मैं बेटा नही,
भाई-बहन के बिना भाई नही,
तुम्हारे बिना मित्र नहीं,
पत्नी के बिना पति नही,
बच्चे के बिना पिता नही ,
पद के बिना अधिकारी नहीं,
विद्यालय के बिना विद्यार्थी नहीं,
इन सब के बिना मैं कुछ भी नही।

दुनिया मे आप अकेले कुछ भी नहीं,
फिर अपने पर इतना घमंड क्यूँ?
वजूद मेरा इन रिश्तों से ही है,
इनके बिना जिंदगी का मजा कैसा!

अब मिल गया है गुरु मंत्र,
जिंदगी जीने का सूत्र,
मजे लेने हैं जिंदगी के ग़र,
हम में जीना होगा, मैं को भूल कर।

Wednesday 12 April 2017

शर्मा जी का लौंडा ......

आवारा........नालायक.....निकट्ठू......... हरामखोर...... चूतिये........  कुछ सीखो शर्मा जी के लौंडे से।
पिता जी ने सुबह सुबह अपने बेटे को गरियाते हुए शर्मा जी के लौंडे से सीखने की नसीहत देकर दिन की शुरुवात की। चीखने की आवाज मुहल्ले वालों ने भी सुनी । कुछ ने रोज का ड्रामा समझा और कुछ ने मजाक में उड़ा दिया। बात यहीं खत्म नही हुई , बल्कि इस घटना से मुहल्ले में पिता की डांट के बाद बेटे की एक इमेज बन गयी। ऊपर दी गयी गालियों के अनुसार हर किसी व्यक्ति ने अपनी अपनी तस्वीर बना ली लौंडे की। अब भला गाली खाकर भी किसी का दिन अच्छा हुआ है।

पिता जी के बेटे ने स्नातक की है और पढ़ने में अव्वल भी रहा किन्तु दुनियादारी के तौर तरीके उसे किताबों में पढ़ी गयी सीखों से कहीं मिलती हुई नही दिखाई दी, इसीलिए दुनियादारी की समझ नही आयी। अतः बेटे जी खुद को समाज में कहीं फिट नही कर पाए। ऊपर से पिता जी की गालियों ने बेटे जी का ऐसा चरित्र चित्रण कर रखा है कि बेटे जी मुहल्ले में जब भी कुछ करने जाते तो कोई हंसी उड़ा लेता तो कोई गरिया देता। गंभीरता से तो उन्हें कोई लेता ही नही। अब पिता जी के उम्मीदों का बोझ बेटे जी पर ही है पर बेटे जी कुछ कर नही पा रहे । कारण तो आप समझ ही गए होंगे। ऊपर से ये काल्पनिक शर्मा जी का आदर्श लौंडा, उससे तो बेटे जी की आज तक मुलाकात ही नही हुई कि उससे कुछ सफलता और आदर्श के पाठ पढ़ लिए जाते।
पिता जी को कौन बताये कि तरक्की तो ऐसे होने से रही। काम तो बेटे जी को ही करना है। बेटे जी पढ़े-लिखे , उच्च शिक्षाधारी और काबिल हैं पर यदि सफलता हाथ नही लग रही तो इसका मतलब साफ है कि जिस तंत्र में बेटे जी काम कर रहे हैं उसमें ही कोई खराबी है। माना बेटे जी से भी गलतियां होती है तो गलतियों की सजा भी होती है जो जरूरी भी है कि मिले ताकि बेटे जी को सीख मिले। लेकिन ऐसे खुले आम गरियाना कहाँ तक लाज़मी है। बेटे जी का मनोबल भी टूटता है और दूसरे भी देखने का नज़रिया बदल लेते हैं। आत्मविश्वास की धज्जियां उड़ी हुई हैं सामाजिक असुरक्षा तो घर के बाहर कदम निकालने से भी मना करती है। ऐसे में तो हो चुका काम।

पिता जी को समझना होगा कि काम यही बेटा करेगा । जरूरत है तो एक स्वस्थ पारिवारिक तंत्र विकसित करने की जिसमे ऊपर से लेकर नीचे तक सबके लिए समान नियम हों, सुरक्षा हो, निर्णय लेने की स्वतंत्रता हो, तरक्की के अवसर हों, अच्छे काम पर तारीफ हो सम्मान हो, और गलत करने वाले के लिए यही तंत्र दंड भी दे न कि मुहल्ले वाले ही आकर पीट दे। अब बेटे जी हैं तो कुछ अधिकार भी हो और आर्थिक क्षमता भी जिससे बेटे जी निडर होकर आगे बढ़ सके और पिता जी के लक्ष्य को प्राप्त काने में सफल हो सके।

सबको पता है कि individually तो परफेक्ट कोई नही है पर सब मिलकर एक परफेक्ट तंत्र जरूर बना सकते हैं। अब काल्पनिक शर्मा जी का आदर्श लौंडा तो मिलने से रहा किन्तु एक स्वस्थ तंत्र पिता जी के बेटे को सफल जरूर बना सकता है जिस पर पिता जी की सफलता भी निर्भर करती है।

बाकी पिता जी तो खुद समझदार हैं कि मुहल्ले वाले सफलता पर तालियां बजाते हैं और असफलता पर मजाक उड़ाते हैं किन्तु कोई आपकी मदद नही करने आएगा और न ही आपको वो काल्पनिक शर्मा जी का आदर्श लौंडे का भूत आपके बेटे में आएगा।

नोट: इस लेखन में पिता जी को सरकार से, बेटे को अधिकारियों से, मुहल्ले को जनता से और पारिवारिक तंत्र की तुलना किसी विभाग से करना पूर्णतः वर्जित है।

Tuesday 4 April 2017

नामकरण..........

क्या नाम दूँ मैं तुम्हे....... नाम देना तो एक परिभाषा में गढ़ने जैसा होगा। तुम्हारे अंदर छुपी असीम संभावनाओं को एक आयाम देने जैसा होगा। किन्तु एक विशेष परिभाषा और आयाम में इंसान की क्षमताओं को केवल एक ही दिशा में  सीमित कर दिया जाता है और भविष्य में वही उसकी पहचान बन जाती है। पर मैं नही चाहता कि तुम किसी परिभाषा  या एक आयाम में गढ़े जाओ। तुम हमेशा अपरिभाषित, बहुआयामी , अगणित गुणों के स्वामी और हर क्षेत्र में माहिर होना। ऐसे बनो कि तुम्हारी व्याख्या को शब्द काम पड़ जाएं। शब्द तुम्हारी पहचान न बनें बल्कि तुम शब्दों की पहचान बन जाओ। तुम्हें नाम दे पाना मेरे लिए कठिन था किंतु तुम्हारी माँ तुम्हे एक पहचान देना चाहती थी। तुम उसका अक्स हो तो उसका असर तो तुम पर होना ही चाहिए। किन्तु मेरी तरफ से तुम मुक्त हो, आजाद हो। तुम्हारी माँ के सुझाव पर तुम्हारे नामकरण की एक कोशिश...........

आदि हो अनंत हो,
कोई छोर नही दिग-दिगंत हो तुम।

यश हो कीर्ति हो,
कोई सीमा नही असीम हो तुम।

जाति-धर्म, क्षेत्र-भाषा से परे हो,
कोई परिभाषा नही व्यापक हो तुम।

अनुनाद हो अंतर्नाद हो,
शब्दों के बंधन से आज़ाद हो तुम।

बेफिक्र हो बेबाक हो,
गमों से परे एक बेखौफ अंदाज हो तुम।

हमारी जान हो हमारा संसार हो,
कोई और नही हमारी पहचान हो तुम।

दो जिस्मों की एक जान हो,
हमारी कहानी का अंजाम हो तुम।

मां का अर्क हो पिता का हर्ष हो,
नीलिमा के यथार्थ और आनंद के निलिन्द हो तुम।

आर्ष-यथार्थ निलिन्द

Saturday 18 February 2017

नज़रों के शामियाने में.....

बड़ी बारीकी से मेरे चेहरे की बारीकियाँ सभी पढ़ लेती हैं,
न जाने तुम्हारी नज़रें किस नज़र से मुझको देखती हैं।

इन आँखों की आरज़ू है कि सामने इनके, बस चेहरा तेरा हो,
नामुराद इन आँखों की प्यास अब बुझाये नहीं  बुझती हैं।

सामने होते हो तो दिल की हसरतों को, सुक़ूं बहुत मिलता है,
कमबख़्त पलकें भी झपकती हैं तो ग़ुस्सा बहुत आता है ।

मेरी नज़र की शैतानियाँ पढ़कर, तुम जो ये नज़रें झुका लेती हो,
क़सम से तेरी ये अदा मुझे क़त्ल बहुत करती है।

कई शरीफ़जादों की नज़रों को ग़ुस्ताख़ होते देखा है,
तेरे शोख़ रुख़्शारों का आफ़ताब माशा-अल्लाह, तुम्हें नहीं पता ये गुनहगार बहुत है।

खिल-खिलाकर जब कभी तुम नज़रों से मुझको छेड़ देते हो,
ख़ुदा क़सम तेरी इन बेशर्म नज़रों से मुझमें गुदगुदी बहुत होती है।

नज़रों को नज़रों से मिलने के इंतज़ार में, ये नजरें बेसब्र बड़ी रहती हैं,
दरमियाँ इन नज़रों के कोई आए तो उससे नफरत बहुत होती है।

कटती नहीं घड़ियाँ, तुझसे मिलने का इंतजार जब होता है,
मिलते ही तुझसे घड़ी की हर टिक-टिक से शिकायत बहुत होती है।