Wednesday 3 July 2019

माँ

माँ जब तुमने मुझे छुवा था,
जीवन का तब संचार हुआ था ।
आकर दुनिया में मैंने जब खोली अपनी आँखें
चेहरा देख तेरा मुझको तब पहला प्यार हुआ था ।
रोना गाना चीख़ना चिल्लाना सभी शिकायत तुझसे थी
तूने हंस कर मेरी हर हरकत पर जमकर लाड़ लुटाया था ।
चलना बोलना खाना खेलना सब कुछ तेरा दिया हुआ
भुलकर सोना जागना  माँ तूने ख़ुद को भी भुलाया था।
मैन क्या कर पाउँगा अकेले अब भी दिल घबराता है
दिल ढूँढ़े तुझे जब जब ख़तरा कोई मँडराता है।
जुड़ी रहे ये डोर सदा तू रहे हमेशा क़रीब मेरे ,
मैं शेर ज़माने में तब तक जब तक पीछे तेरा सहारा था।

उनका असर!

गरम हवाएँ चारो तरफ़, चल रही लू हर तरफ़,
नही समझ पा रहे मिज़ाज, मौसम के जानकार हर तरफ़,
कोई हमसे पूछे वजह, कि वो आज ही गए हैं शहर छोड़कर,
इसलिए नाराज़ होकर चल रही हैं गरम हवाएँ हर तरफ़।

सब कुछ सम्भव है, तू धरा को उँगलियों पर उठा कर तो देख,
समय भी ठहरता है, तू उनकी ज़ुल्फ़ों की छांव में बैठकर तो देख।

कुछ दिखता नही इतनी काली रात है, कहीं ये अमावस तो नही ,
अँधेरा ही अँधेरा हर तरफ़ कहीं ये, उनके ज़ुल्फ़ों की छांव तो नहीं।

आज़मा लो!

आग अभी बाकी है कि नही
जांच कर के देख लो कि
खुराफ़ात बाकी है कि नही
तुम सोच रहे हो कि समय बदल गया
वो पहले वाला आनंद बाकी है कि नही
समय निकालो और कभी मुलाकात तो करो
तब तो पता चलेगा कि पहले जैसी गर्मी बाकी है कि नहीं।

आँखें हार गईं .....

दिल की इस गगरी को
मैंने छलकने से रोका था,
आँखों में बसी गंगा को
मैंने बहने से रोका था,
उम्मीद थी कि सब अच्छा होगा
मिलेंगे हम तुम और सब कुछ ठीक होगा।
कब से जो मैंने खुद को संभाल रखा था,
झूठी मुस्कान से अंदर के गम को छुपा रखा था।
किन्तु किस्मत ने खेला खेल,
पलटी बाजी और चली ऐसी चाल।
दिल पर जो रखे हुए थे हम पत्थर,
वो भी वक़्त की आंच में पिघल गया।
बांध सब्र का कब तक साथ देता,
इंसान ही थे न कि कोई देवता।
नदी का बहाव तेज था नाव मेरी डूब गई,
निकल आये आंसू और ये आंखें हार गईं।

ज़िन्दगी मेरी बात तो मान...

ज़िन्दगी मेरी बात तो मान
बैठ जा, सुस्ता ले
कुछ आराम तो कर
घट रही जो घटना
उस पर गौर तो कर
छूट रहे जो अपने
उनसे मुलाक़ात तो कर
क्या करेंगे इतनी तेज़ दौड़कर
ये शाम कैसे काटे अकेले रहकर
कुछ देर रुक जा खुद से बात तो कर
झांक कर अपने अंदर खुद को पहचान
ज़िन्दगी मेरी बात तो मान।

मकाँ

इसी मकाँ में कभी
तुमने अपने पहले क़दम रखे थे
लाल रंग में रंगे हुए
छोड़ी थी अपने पैरों की एक छाप
लगा दी थी मुहर
बना लिया था इस घर को अपना
कल तक तो मेरी चलती थी
पर अब क़ब्ज़ा तुम्हारा था
मिल्कियत तुम्हारी थी
ऐसा लग रहा था जैसे
इस घर को तुम्हारा ही इंतज़ार था
तू बेवजह अब तक दूर था
अब लगा इतना सन्नाटा क्यूँ था?
क्यूँकि तेरा ही इंतज़ार था
इस मकाँ को कभी !

आदत सी हो गयी है...

आदत सी हो गई है
बेवजह बड़बड़ाने की
बात-२ पर चिल्लाने की
उँगलियों पर कुछ गिनते रहने की
कुछ भूल रहा हूँ जैसे और करता हूँ
कोशिश न जाने क्या याद करने की
उधेड़बुन में रहता हूँ
न जाने क्या खोजता हूँ
मेरी अब ख़ुद से ही शिकायत
बेशुमार हो गयी है
ऐसे जीने की अब मुझे
आदत सी हो गयी है