दिल की इस गगरी को
मैंने छलकने से रोका था,
आँखों में बसी गंगा को
मैंने बहने से रोका था,
उम्मीद थी कि सब अच्छा होगा
मिलेंगे हम तुम और सब कुछ ठीक होगा।
कब से जो मैंने खुद को संभाल रखा था,
झूठी मुस्कान से अंदर के गम को छुपा रखा था।
किन्तु किस्मत ने खेला खेल,
पलटी बाजी और चली ऐसी चाल।
दिल पर जो रखे हुए थे हम पत्थर,
वो भी वक़्त की आंच में पिघल गया।
बांध सब्र का कब तक साथ देता,
इंसान ही थे न कि कोई देवता।
नदी का बहाव तेज था नाव मेरी डूब गई,
निकल आये आंसू और ये आंखें हार गईं।
Wednesday, 3 July 2019
आँखें हार गईं .....
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