Wednesday 24 June 2020

बचत!

कोरोना काल में जीने को क्या जरूरी है और कितना जरूरी है, ये जानने को मौका मिला। प्रवासी मजदूरों की हालत देखकर पैसे और संसाधनों की कीमत समझ आई। अपने को कहीं अधिक बेहतर स्थिति में पाया। अब ये सोच लिया कि जरूरतें कम करनी हैं और समाज के लिए अधिक जीना है। जीवन के लिए जरूरी चीजों के अलावा कोई और खरीददारी नहीं।

घर में दो जोड़ी चप्पल टूटी पड़ी थीं। बहुत दिन से कष्ट हो रहा था। जब जरूरत हो तो टूटी चप्पल सामने। ये चप्पलें घर के भीतर पहनने वालीं थी तो इतने दिन काम चल गया। लेकिन जरूरत तो पड़ती ही थी। क्या करें? नई ले ली जाए? लेकिन क्यों? एक जोड़ी कम से कम 250 रुपये की तो पड़ेगी ही। दो जोड़ी के 500। न, क्यों पैसे बर्बाद किये जायें! फिर काम कैसे चले 🤔। मन में मोची के पास जाने का ख्याल आया। लेकिन अजीब लग रहा था कि इतनी मॅहगी चप्पल तो है नही जिसे मरम्मत कराकर सही कराई जाए😑।

फिलहाल मन को साधा गया और चप्पलों को समेटकर एक थैले में। सुबह ऑफिस निकलते वक्त गाड़ी में  रख लिए। और फिर क्या, यदि आप किसी अच्छे काम के लिए निकलो तो मुराद पूरी हो जाती है। वो ऐसा है कि ढूढने से भगवान भी मिलता है। तो मुझे भी मिल गया-मोची। बिल्कुल भगवान स्वरूप। झट से चप्पल बढ़ाई और पट से काम हो गया। 70 रुपये में काम चौकस। सीन चौड़ा हो गया। 430 रुपये बच गए। मानो किला जीत लिया हो। गर्व की अनुभूति के साथ गाड़ी में बैठे और घर। सीढियाँ दौड़ कर चढ़ीं और डोर बेल बजायी। दरवाजा खुला और हम मारे खुशी के चौड़े होकर बोले- काम हो गया, बच गए पैसे। बीवी ने एक तिरछी निगाह से हेय दृष्टि से देखा और मुँह बनाकर छोटे वाले बच्चे को लेकर बाथरूम की ओर चल दी। कुछ पूछा भी नही कि क्या हुआ। सारी हवा मिनटों में निकल गयी और खुशी छू मंतर। 

एक आदमी अच्छा काम केवल दिखावे के लिए करता है और उसके बदले तारीफ की उम्मीद करता है। उसके लिए अच्छा काम करके मिलने वाली खुशी से ज्यादा उस काम की तारीफ से मिलने वाली खुशी ज्यादा मायने रखती है😉। और वो मुझे यहां मिलने से रही😑। मैंने भी चप्पल वाला थैला एक किनारे रख दिया और खुशी को गुस्से में बदलकर कोरोना काल के नित्य कर्म में लग गया। चप्पल फिर टूटेगी, फिर बनेगी लेकिन जान है तो जहान हैं। नीचे फोटू वाले भैया को सादर प्रणाम, हमाये पैसे जो बचाये इन्होंने😎।
~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२४.०६.२०२०

Sunday 21 June 2020

अमराई......।

कोरोना का समय चल रहा है। सरकारी नौकर होने के कारण कभी घर बैठने का मौका नही मिला। एक आदमी चाहता भी कब है। कोई न कोई बहाना कर निकल ही जाता है बाहर। थोड़ा इधर-उधर करने। लाइन को मत पकड़ियेगा और गहराई में तो बिल्कुल भी न उतरियेगा।

गाँव से शहर तक का सफर तय किया है। एक व्यक्ति की औसत आयु का लगभग आधा जी चुका हूँ। अनुभव भी थोड़ा बहुत आ चुका है तो कुछ बातों को जोर देकर भी कह सकता हूँ। इसलिए तुलना करते हुए लिखता हूँ कि खाली बैठने का जो आनन्द गाँव-देहात में आता था वो शहरों के बंद कमरों में उपलब्ध सुविधाओं में कहाँ। मन एक जगह टिकता ही नहीं। खुरपेंच करने को बहुत सी चीजें आसानी से जो उपलब्ध हैं।

जेठ की दुपहरी हो, बिल्कुल तपती गर्मी, लू वाली। घर से नेनुआ भात भर गटई दबाय के खोपड़ी पर गमछा डार के सीधे टिबिल वाले बाग की ओर। न हाथ में मोबाइल और न जेब में पर्स। ले दे के साथ सत्तर रुपया, दस दस के नोट। आज खेत में पानी दिया जा रहा है, टिबिल चल रहा है। खेत के किनारे कच्ची नाली से पानी बहता हुआ जा रहा है। स्वच्छ, पारदर्शी और नदी सा कल-कल करता हुआ। कभी कभी तो सरजू मैया की याद दिलाता हुआ। एक पेड़ की छांव देखकर घस्स से बैठ गए पेड़ की टेक लगाकर, नाली में पैर डालकर। निहार रहे है पैर को। पानी की शीतलता पूरे शरीर को तृप्त करती हुई। नाली में उगी हुई घास लगातार पानी के बहाव से संघर्ष करती हुई। इसी बीच एक चींटी पानी के बहाव में दिखती है। किंतु उसने हार न मानते हुए मौका देखकर एक दूब को पकड़ ही लिया और अपनी जान बचाई। डूबते को तिनके का सहारा वाली कहानी चरितार्थ होते हुए सामने ही देखा।

काफी देर तक यूँ ही बैठे-2 जब आलस आने लगा, आये भी क्यूँ न, गटई तक नेनुआ भात जो पेले हैं, तो आम के पेड़ के नीचे पड़ी खटिया पर पसर गए। पीठ के बल। टिबिल के चलने का शोर लगातार कानों में पड़ रहा है। दूर-२ तक केवल खेत ही दिखते हैं। बिल्कुल सपाट और इस भीषण गर्मी में जलते हुए। बहती हुई लू साफ दिखती है। ले दे के दो चार किसान ही दिखाई पड़ रहे हैं। ऐसे में बाग में आम के पेड़ के नीचे की शीतलता एक अलग ही ठंडक पैदा कर रही है। इस बार आम अच्छे आए हैं। आम की फसल को निहारते, उनके पत्तों को निहारते, चींटियों द्वारा दो पत्तों को किसी सफेद पदार्थ से जोड़कर बनाये झोंझ को देखते , आम की खुशबू को सूँघते, कहीं दूर से आती कोयल की आवाज को सुनते हुए एक अलग ही रस पैदा हो रहा था। अगल बगल कोई न हो और दिमाग को कोई व्यवधान न हो तो व्यक्ति अपने पसंद के ख्यालों में आसानी से खो जाता है। ऐसे में भैया की साली की याद आ गई और तन बदन में एक अलग ही गुदगुदी कर गई। ज्यादा नही लिखूँगा इस पर , आप स्वयं ही आगे की कहानी समझियेगा। इसी बीच कौनो रसिक मिजाज आदमी साइकिल से रेडियो बजाता हुआ निकला- घूँघट की आड़ से दिलवर का ............ तन-बदन में एक लहर गुजर गई।

इसे कहते हैं एकांत। सारी सिद्धियाँ इसी में प्राप्त होती हैं। पूरी दुपहरी अपनी। चारों ओर प्रकृति। अलसाया सा तन। कभी गर्म तो कभी ठंडी हवा की छुवन । खुद को जानने समझने का पूरा मौका। इसे कहते हैं आत्म सुख। दो घंटा खूब ऐंठ कर सोने के बाद जब नींद खुली तो पूरी बनियान भीगी हुई। मगर शरीर में फुर्ती भरी हुई। उठ कर बैठ गए। थोड़ी देर बाद जब होश में आये तो उठकर सिंचाई वाली नाली के पास गए। मुँह धोये और गमछा से पोंछ कर चल दिये बाजार की ओर, पैदल ही। चाट खाएंगे हरा मिर्चा और खूब टमाटर और मूली का सलाद डालकर। चलते-२ भैया की ससुराल जाने का भी प्लान बना लिए। इस बार तो हाथ पकड़ना ही हैं उनका। ऐसे थोड़े ही। आखिर कब तक.........!!

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२१.०६.२०२०

Sunday 14 June 2020

The library and you!

Smell of book
And 
Smell of you 
Can loot me
In a few.
See the tragedy,
You are in library, 
Just in front of me.
Hey god of love
I'm losing myself
Please Control me.
There must be a notice 
Outside of library
The combination is not allowed
The library and you.

रेडियो एक्टिव !

तुम्हारे तन पर साड़ी 
लिपटी हो जैसे नागिन,
अदाओं ने तुम्हारी ओढ़कर इसे
जहरीला और कर दिया।

साड़ी पहनना चाहते सभी पर 
जन्मी है ये केवल तुम्हारे लिए,
हुनर और सलीके ने तुम्हारे आज
इस अधूरी को पूरा कर दिया।

देखो न आया करो सामने इस कलेवर में
हम अपनी जान की आज दुआ मांगते हैं,
रेडियो एक्टिव आप पहले ही क्या कम थीं
जो आज रेडिएशन का लेवल इतना अधिक कर दिया।

हम तो बस यही सोचकर परेशान हैं
दिल के मरीजों का हाल अब क्या होगा,
न्यूक्लियर हथियारों पर तो रोक-टोक है
पर आपको रोकने का इंतजाम क्या होगा।

Thursday 11 June 2020

पागलपन

तेरे उसके पास रहने से न जाने उसे क्यूँ डर सा लगता था
उसके अंदर का एक शख़्श बड़ा कमजोर महसूस करता था।

लग गयी थी आदत तेरी वो तुझे रोज दोहराता था,
कमबख़्त कुछ भी हो वो तेरा इन्तज़ार करता था ।

तेरे साथ न होने का उसको बड़ा मलाल रहता था,
खुद से परेशान होकर वो हज़ारों सवाल करता था ।

अच्छा हुआ जो तू चला गया, बिन बताए, हमेशा के लिए,
अब पता चला उसके अंदर एक शख़्श बेहद मजबूत रहता है।

इत्तफ़ाक से आज ख्वाब में तुम थे और नींद खुल गई उसकी,
पागल मिलने की ख़ातिर वो सोने की कोशिश बार-२ करता है।

Monday 8 June 2020

रिक्त ...!

रिक्त हूँ
व्याकुल भी 
कुछ पाना भी है
है सब हासिल भी।

शब्द ढेरों हैं
हैं भाव भी
लयबद्ध करने को 
रात अकेली भी।

समझ नही आता कैसे
और कहां से शुरू करूँ
लिखूँ क्या अब 
सोचती कलम भी।

पाने की बात क्या करना
मुश्किल है अब सोचना भी
तुझको बाँधना है कठिन मेरे लिए 
अब कविताओं में भी।

Thursday 4 June 2020

सबक! बेवजह.....

तारीख़ मुक़र्रर कर दो सजा की मेरी,
अब मुझसे और इंतज़ार नही होता।

अब तो दम घुटता है मेरा मेरी बेगुनाही से,
गुनाह करता तो शायद इतना न परेशान होता।

दरिया क्या ही गहरा होगा, कोई तो छोर होगा!
ये शब्दों के मतलबों का अब किनारा नही मिलता। 

देखो समय है अभी संभल जाओ ऐ लाल कलम वालों,
इक समझदार का बेवक़ूफ साबित होना, अच्छा नहीं होता।

वक़्त है ये ,आज तुम्हारा है तो कल मेरा भी आएगा,
पैसा, ताक़त, ग़ुरूर और समय किसी का सगा नही होता।