Friday 26 March 2021

रात, खिड़की, रेलगाड़ी और कुछ ख्याल तेरे!

आज भी 
जब मैं
सुनता हूँ
आवाज 
रेलगाड़ी की
तो एक चमक
कुछ पल को
भर जाती है
मेरी आँखों में
दिल को होती है 
उम्मीद कि
तुम भी लौट आओगे
एक दिन 
इसी रेलगाड़ी से...

उम्मीद
हो भी क्यूँ न!
आखिरी बार 
तुम्हारे साथ थे 
रेलवे स्टेशन पर 
छोड़ आए थे तुम्हें
रेलगाड़ी में...
आज भी मुझे
याद है 
तुम्हारी वो आँखे
परेशान चेहरा 
पैरों की हलचल
हथेलियों का उलझना
हृदय की वेदना
और मेरा
रखकर दिल पर
बहुत भारी पत्थर
तुमको जबरन 
गाड़ी में चढ़ाना
जब रेलगाड़ी
चलने को हुई थी।

उम्मीद 
तुम्हारे लौटने की
बनी रहेगी
तब तक
जब तक
रहेंगे ये 
स्टेशन
और
चलती रहेगी
एक भी 
रेलगाड़ी।

आज भी 
जब मैं
सुनता हूँ
आवाज 
किसी रेलगाड़ी की......

©️®️रेलगाड़ी/अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२६.०३.२०२१

Thursday 25 March 2021

रात (ज़िन्दगी की...)

आधी रात को खिड़की से बाहर क्या देखूँ
फिर भी देखूँ तो रात के सन्नाटे में क्या ढूढूँ
ढूढूँ भी तो वर्षों की तन्हाई में किसे पुकारूँ
पुकारूँ तो हृदय की आवाज किसे सुनाऊँ?

आवाज बहुत है भीतर शोर बहुत है मगर
रात के सन्नाटे सा चेहरा ये शान्त बहुत है
दिन के भीषण कोलाहल से बचने को रात ने
आज कल अन्धेरे से कर ली यारी बहुत है।

रात के इस सफर को पूरी रात काटनी है 
दिल के इस सफर को ये ज़िन्दगी काटनी है
रात ज़िन्दगी है या फिर ज़िन्दगी ही रात सी है
अब तो बस ज़िन्दगी की ये रात काटनी है।

अब तो बस बादल घिर जाएँ और बिजली चमक जाए
एक तेज आँधी चले और इस सर का छप्पर उड़ जाए 
ऐ ज़िन्दगी अब कोई ख्वाहिश नहीं मैं कुछ और नहीं माँगूँगा
बस जम कर बारिश हो और फिर चमकीली धूप खिल जाए।

©️®️अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२५.०३.२०२१

Sunday 21 March 2021

अनुनादित आनन्द

चीजें पुरानी देखकर तुम जो आज मेरी मुफ़लिसी पर हंसते हो,
नए अमीर तुम पुश्तैनी खजाने की कीमत कहाँ आँक सकते हो!

शहर में हर कोई नहीं वाक़िफ़ तेरे हुनर और ऐब से आनन्द
मेरी मानें तो घर से निकलते वक़्त अच्छा दिखना ज़रूरी है।

खुद को खुदा करने को, इतना झाँक चुके हैं अपने भीतर
इतनी गंदगी, कि कोई पैमाना नहीं, टूट चुके हैं सारे मीटर!

हम यूँ ही आज लिखने बैठे, सफेद पेज को गंदा करने बैठे 
अच्छा करने में दामन होते दागदार ये सबक हम लेकर उठे।

खुदा करे ये सफेद दामन मेरा भले कामों से दागदार हो जाए,
नाम बदनाम हो सही है, पर लोगों का दिन ख़ुशगवार हो जाए।

मैं तो जी रहा था अपनी धुन में कहीं और इस ब्रम्हांड में,
इस धरा को करने आया अनुनादित मैं अपने आनन्द में।

©️®️अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२०.०३.२०२१

Saturday 20 March 2021

साथ... (खुद का)

अकेले आये थे 
अकेले जाना है 
ये जीवन भी हमें
अकेले ही बिताना है।

इर्द-गिर्द की भीड़ छलावा 
अपना न कोई नाता है 
अकेलेपन का गीत 
इसीलिए तो भाता है।

खुद का साथ 
खुदा का साथ 
जीवन सुख में
अपना ही हाथ।

ज्ञान का अभिमान
दिखाता अज्ञान
झुककर देखा 
तभी मिला सम्मान।

बन्द मत करो 
चार दीवारों में
खुलकर मिलो सबसे
खुशियाँ नज़ारों में।

करते रहो बातें 
जीते रहो बेमिसाल
वरना उम्र का क्या
कट जाएगा ही साल।

अकेले आये थे 
अकेले ही जाना है 
ये जीवन भी हमें
अकेले ही बिताना है।

©️®️अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२०.०३.२०२१

Wednesday 17 March 2021

कहानी तेरी-मेरी...

किताबी इस कहानी का अंजाम कुछ यूँ हो,
मैं लिखूँ एक किताब और कहानी हम तुम हों,
चाहूँ तो बदल दूँ वो क़िस्से जो मुझे नहीं पसंद लेकिन,
बिना बिछड़े भी बताओ मेरी कहानी मुकम्मल कैसे हो?

जिस उम्र में तुझसे बिछड़े थे,
वर्षों से वो उम्र वहीं पर ठहरी है!
जीने को फिर से वो दिन,
बस एक मुलाकात जरूरी है।

साथ सुहाना वो सफर में निभा न सके,
ख्वाब जो देखे साथ वो पूरे कर न सके,
ये उनके करवट बदलने की बीमारी पुरानी लगती है, 
ख्यालों में कोई सूरत अभी भी जिन्दा लगती है।

वो खुद को मेरी नज़र से ही देखते होंगे!
तभी तो आईना देखकर यूँ शरमाते हैं।
तैर जाते होंगे ख्यालों में वो साथ बीते सभी पल,
तभी तो उनके गाल लाल नज़र आते हैं।

©️®️अनुनाद/आनन्द कनौजिया/१७.०३.२०२१




Tuesday 16 March 2021

अभी बाकी है, समय जो बीत गया !

शहर अभी भी ज़िंदा है,

कुछ मुझमें कुछ तुझमें!

समय पुराना रुका हुआ है,

कुछ मुझमे कुछ तुझमें!


सब कुछ पहले जैसा है,

कुछ मुझमें कुछ तुझमें!

नज़र अभी वही है देखो,

कुछ मुझमें कुछ तुझमें!


बिछड़े थे तो दोनों का कुछ हिस्सा 

इक-दूजे में छूट गया था,

पाने को उसको चाह बची है,

कुछ मुझमें कुछ तुझमें!


उम्र कितनी बीत गयी, मिले हुए, 

तेरी भी और मेरी भी !

किन्तु! उम्र अभी भी इक्कीस है,

तेरी भी और मेरी भी !


वक़्त पुराना फिर जीना है,

मुझको भी और तुझको भी!

इक मुलाकात की दरकार है बस,

मुझको भी और तुझको भी!


लिखता हूँ महसूस करता हूँ,

खुदको भी तुझको भी!

शायद इन शब्दों में तुम पढ़ लेते हो,

खुदको भी मुझको भी!


अभी बाकी है, समय जो बीत गया,

कुछ मुझमें कुछ तुझमें!

दिल की उम्र अभी जवाँ है, 

पूरी मुझमें पूरी तुझमें। 

©️®️अनुनाद/आनन्द कनौजिया/१६ .०३ .२०२१





Sunday 28 February 2021

चोला.........(स्त्री के तन का)

एक पुरुष होकर ऐसे विषय पर लिखना, असंभव कार्य है। किंतु इस समाज का हिस्सा होकर और ऐसे पद पर रहते हुए जिसमे पब्लिक डीलिंग प्रमुख कार्य हो, मुझे विविध प्रकार के पुरुषों, स्त्रियों , बच्चों , युवा, प्रौढ़ और वृद्ध व्यक्तियों  से मिलने , बात करने का मौका मिला। सामान्यतः मेरे पास सभी कुछ न कुछ समस्या लेकर ही आते हैं और यही मेरे लिए सबसे अच्छा अवसर होता है व्यक्ति विशेष को समझने का। ऐसे तो साधारण स्थिति में आप किसी को पहचान नही सकते किन्तु जब वह परेशान हो तो उस व्यक्ति का प्रकार, प्रकृति, चरित्र और चलन सब सामने आ जाता है। थोड़ा संयम रखकर उससे बात की जाए तो आप उस व्यक्ति का पूरा इतिहास खंगाल सकते हैं।
समस्या, उससे होने वाली परेशानी और उत्पन्न कठिनाई प्रायः दो तरह की होती है- एक स्त्री और दूसरा पुरुष के लिए। एक समान समस्या के लिए दो बिल्कुल ही अलग स्थिति, व्यवहार, क्रिया और उस पर सामाजिक प्रतिक्रिया । यहीं भेदभाव जन्म लेता है। ऐसा नही है कि ये भेदभाव केवल स्त्री को ही झेलना है बल्कि पुरुष भी इसका बराबर शिकार है। किंतु फर्क इतना है कि पुरुष प्रधान समाज मे स्त्री को बोलने का हक़ नही है और पुरुष अपना दुख बोल नही सकता। स्त्रियों से संबंधित गड़बड़ियों को तूल बनाकर उछाला जाता है कि इससे समाज की छवि बिगड़ेगी और न जाने क्या क्या......! जबकि पुरुष से संबंधित चीजों को दबा दिया जाता है यह कहकर कि अबे! तुम कैसे आदमी हो? 

लिखने को तो दोनों पर ही बहुत है पर आज का विषय है- स्त्री! पढिये और अपने विचार व्यक्त करिये......

कहने को अबला हूँ
बेचारी हूँ लाचार हूं।
करते मेरा शिकार
मिटाने को अपनी हवस
कितनो को गिरते देखा है 
खुद के सामने।

कमजोर हो तुम 
या 
अबला हूँ मैं.....?

कहने को कमजोर हूँ पर
लड़ी गयीं लड़ाइयाँ
मुझको लेकर
करने को मुझ पर नियंत्रण 
दिखाने को मर्दानगी
भरने को हुंकार ।

खोखले हो तुम
या 
कमजोर हूँ मैं.....?

रूप हूँ सौंदर्य हूँ
कोमलांगी हूँ
फूल भी शर्मा जाएँ कि 
चढ़ते यौवन का श्रृंगार हूँ।
किन्तु कुचला गया मुझे 
दिखाने को अपना सम्मान। 

कुत्सित हो तुम 
या 
श्रृंगार हूँ मैं....?

हिल जाये धरा 
भूचाल हूँ।  
पिघला दूँ चट्टानों को
वो आग हूँ।
पर देती तुझे ममता 
सँवारती तेरा भविष्य......       

मासूम हो तुम 
या 
शक्ति का रूप हूँ मैं....?

चलूँ सड़क पर 
देखो हम पर नज़रें हज़ार हैं 
गन्दगी तुम्हारी आँखों में 
देखो बेशर्म हम हैं। 
कपडे तन ढकते हैं 
या चरित्र तय करते हैं ?

गंदा मन तुम्हारा 
या 
सिर्फ जिस्म हूँ मैं....?

लिखते हो गीत 
मेरे सुन्दर नयनों पर 
पलकों पर 
होंठों पर 
बालों पर 
लचकती कमर पर। 

मन और भावों को भी समझते हो
या 
अंगों का सिर्फ एक गट्ठर हूँ मैं....?

आगे बढ़ने को 
नाम रोशन करने को 
लड़ते नहीं सिर्फ खुद से 
होता संघर्ष समाज से 
पहुँच कर ऊंचाइयों पर 
होते हम सदा अकेले। 

साथ चलने की बर्दाश्त तुम में नहीं 
या 
असाधारण हूँ मैं ?

समानता की नहीं गुंजाइश 
भेद को यहाँ देखो कई हैं तत्व 
औरत की बराबरी को 
पुरुषों में नहीं इतना पुरुषत्व। 
समानता से होगी सिर्फ तुलना इक की दूजे से  
अब बात हो सिर्फ सम्मान की। 

बात रखने की इजाजत है हमें 
या 
मेरी हर बात गलत है....?

©️®️अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२८.०२.२०२१

फोटो: साभार इण्टरनेट