जीवन के इस प्रेम सफ़र में तू
इन बूँदों सी झर-झर झरती है
इक आग दहकती नित मुझमें
तू ठंडक सी भीतर उतरती है।
दूर नहीं है मुझसे कभी
तू मुझमें ही तो रहती है
आदतन ये आँखे मेरी तुझे देखने को
मन की खिड़की से अंदर झाँका करती है।
इक ठिठुरन सी मुझमें उठती है
गुनगुनाहट की चाहत उठती है
खुद को समेट कस लूँ तुझको
कुछ ऐसे भी गर्माहट मिलती है।
जो भीतर है मेरे हर मौसम उससे
पूरे बरस मुझमें सावन झरती है
लाख गुजर रही हो ये ज़िन्दगी पर
तुझ पर पुरज़ोर जवानी रहती है।
सफ़र बीत रहा मंज़िल है आने को
विचलित मन ये कोई तो हो मनाने को
मंज़िल के बाद भी सफ़र जारी है रखना
कोई मन-माफ़िक़ साथी हो ये बताने को।
जीवन के इस प्रेम सफ़र में तू
इन बूँदों सी झर-झर झरती हो
इक आग दहकती नित मुझमें
तू ठंडक सी भीतर उतरती हो।
©️®️सफ़र की बारिश/अनुनाद/आनन्द कनौजिया/०९.०१.२०२२
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