Wednesday, 5 February 2020

एक इंजीनियर की नज़र में नारी सशक्तिकरण (निबंध)

शिक्षा और पेशे दोनों से इंजीनियर हूँ। शिक्षा और पेशा इन दोनों शब्दों पर जोर देने का भी कारण है। एक व्यक्ति इंजीनियरिंग की शिक्षा पाकर इंजीनियर के अलावा कुछ भी बन सकता है पर मैं इंजीनियर ही बना। विडंबना है। ज्यादा इधर उधर की बात न करते हुए सीधे विषय पर चलते हैं। नारी सशक्तिकरण का समर्थक एक इंजीनियर से ज्यादा कोई नही हो सकता। व्यक्तिगत रूप से मैं दोनो हाथ उठाकर इसका समर्थन करता हूँ। उम्मीद है आप भी करते होंगे।

मैं एक साधारण सा दिखने वाला कम सुंदर (थोड़ा सुंदर तो हूँ) व्यक्ति हूँ ( इस पंक्ति पर मेरी बीबी को अतिसंयोक्ति है.... खैर!) । बारहवीं तक तो अत्यंत शर्मीला या कह सकते हैं कि अपने रंग को लेकर हीन भावना से शिकार । लेकिन केवल दुनिया वालों के सामने .... अन्दर ही अन्दर हम शाहरुख से कम न थे। अब बारहवीं के बाद इंजीनियरिंग में दाखिला ले लिए और वो भी इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में और बस उसी दिन से हम स्त्री सशक्तिकरण के कट्टर समर्थक ! साठ लोगों की क्लास में केवल 4-5 लड़कियाँ। दिल का दर्द दिल में ही रह गया। बस मैकेनिकल वाले लड़कों को देखकर जिन्दा थे वरना जीने के लिए कुछ बचा नही था। दुश्मन थे तो केवल कंप्यूटर साइंस और आई टी वाले लड़के। उनसे जलन थी ... बहुत ज्यादा!

किस दौर में जन्म ले लिए थे। घर से बाहर निकलते ही मनहूस मर्दों के चेहरे सामने। बस, टेम्पो, कॉलेज, कोचिंग, कार्यालय हर जगह बस मनहूस चेहरे ही दिखाई पड़ते हैं। कभी गलती से कोई औरत दिख जाए तो वो भी पल भर को। थोड़ा और बाद में जन्म लेना चाहिए था जब औरत और मर्द की समाज में बराबर हिस्सेदारी होती। सोचिये सुबह होते ही घंटी बजती और आप गेट खोलते तो हाथ में दूध का डब्बा लिए एक स्त्री मुस्कुराते हुए बाबू जी दूध ले लीजिए। फिर थोड़ी देर में अखबार देने वाली भी एक स्त्री । आफिस निकलने को हुए तो ड्राइवर भी एक स्त्री। कार्यालय में समानुपात में औरत और मर्द। आहाआआआ.... सोचकर ही कितना अच्छा लगता है।

हमारी बीबी जी..... हर वक़्त शक। तुम साले को सुबह उठ कर आफिस निकल जाते हो अय्याशी करने और हम यहां घर में बच्चे संभाले। मैने भी प्यार से कहा , अय्याशी और हम! हमारी ऐसी किस्मत कहाँ........ काश! बीबी को समझाते हुए ! ( ये संभव नही फिर भी..) देखो जान... ये बताओ ! मेरी सुंदरता पर तुम्हे कोई शक नही .. मानता हूं। फिर भी ये बताओ बाहर निकलने पर तुम्हे कौन सबसे ज्यादा दिखाई पड़ते हैं ? औरत या मर्द? वो बोली - मर्द। बस यही तो मैं समझाना चाहता हूं कि बाहर केवल मर्द मिलते हैं, और अगर गलती से कोई औरत मिल भी जाये तो मेरी जैसी सूरत वालों के लिए अवसर की बेहद कमी है। पर बीबी के सामने ये प्रयास भी निरर्थक। समझा पाना नामुमकिन है, मैंने भी हथियार डाल दिए।

अब थोड़ा गंभीरता से विचार करिए। ऊपर लिखी गई बातों में मजाक को छोड़कर उसके दूसरे पहलू को खंगालिए। यदि सच में समाज मे औरत और मर्द की बराबर की हिस्सेदारी हो जाए तो स्त्री सशक्तिकरण जैसे मुद्दे पर बात करने की जरूरत नही पड़ेगी। यदि कर्नाटक की डॉक्टर को स्कूटी पंक्चर होने के बाद अपने अगल बगल औरतें मिली होती तो क्या उनके साथ अमानवीय व्यवहार होता ? क्या इस तरह उनकी नृशंस हत्या होती? इस पर आपके जवाब का इंतजार रहेगा....

आप सबसे यही अपील है कि घर की बेटियों पर पहरा लगाना छोड़िये। समाज के प्रत्येक कार्यक्रम में उनकी बराबर की हिस्सेदारी सुनिश्चित करिये। लड़कियां देर शाम घर से बाहर निकलेंगी तभी सुरक्षित रहेंगी न कि घर में रहकर। स्त्रियों के प्रति अत्याचार कानून बनाने से नही रुकेगा । उसे वो स्वयं रोकेंगी । समूहों में आगे आकर। हमारी सरकार को प्रत्येक संस्था में औरतों को पचास प्रतिशत आरक्षण सुनिश्चित करना होगा। हम जिस दौर में आ चुके हैं वहां दिन और  रात का अंतर खत्म हो गया है। हम दिन में भी काम करते हैं और रात में भी। औरतों को रात में घर से बाहर निकलने से रोकने में देश ही पीछे जाएगा। औरतें अपनी सुरक्षा स्वयं कर सकती हैं। इसके लिए उन्हें मर्दों के रहम और करम की आवश्यकता नही। उन्हें बस समाज में अपनी बराबर की हिस्सेदारी के लिये लड़ना चाहिए। 

तुम साले को औरतों से ऊपर मत उठ पाना। भाड़ में जाओ। एक पैसे को भी बेकार हो। घर में भी एक औरत है। कभी उसका भी हाथ बंटा लिया करो। छिछोर गिरी से ऊपर उठ जाओ अब- बीबी जी ने चिल्लाते हुए कहा। चलता हूँ भाई और उनकी बहनों। मार नही खानी। लिखने को बहुत कुछ है पर दो बच्चे भी हैं। आप अपनी राय कमेंट में जरुर दें। चर्चा जारी रहेगी। फिर मिलेंगे....!

तेरा साथ ही आनन्द...

आपकी बातों में छुपी शैतानियाँ समझते हुए भी वो अनजान बनते हों...
जब समझाओ तो ज्यादा होशियार न बनो, ये कहकर बातों को टाल देते हों...
इससे ज्यादा कोई रिश्ता क्या मुकम्मल होगा, कि दोनों दिल एक ही मुकाम पर हैं...
तू बस उनके साथ सफ़र को जी, इससे ज्यादा की क्यों उम्मीद करते हो...

Tuesday, 4 February 2020

ज्ञान !

ज्ञान बहुत है सबके पास तुम्हें अब बहुत मिलेगा, तू लेता रह,
बुरे वक़्त में ऊँट पर बैठे बौने को भी लंगड़ी कुतिया काट लेती है ।

सब्र रख और मुस्कुराकर लोगों के हाव भाव देख, ये नयी बात नही, 
जिन्हें कभी बोलना तुमने सिखाया था, उनकी भी बात सुननी पड़ती है।

तूफ़ान है अभी दरिया में बहुत तेज, थम जा ज़रा,
मौसम साथ न दे तो नाव क़रीने से पार करनी पड़ती है।

दिन को सूरज यूँ ही नसीब नही होता, तुमको पता होगा,
उसे भी ये काली अंधेरी रात पूरी इंतज़ार में बितानी पड़ती है ।

इश्क़ बनारस ...

तुम्हारे सर पे पल्लू और बंद आँखो से नज़रें हटाना मुश्किल है.......
तुम मिले भी तो बाबा के दरबार में जहां रुकना भी मुमकिन नही होता।

सुनो, पीपे के पुल के शोर में कुछ भी सुन पाना बड़ा मुश्किल है......
और बिना समझे तुमको ताकना कि तुम्हारा बोलना बंद नही होता । 

बनारस की नशीली हवाओं में सीधे खड़े रहना भी मुश्किल है......
उस पर तुम्हारे हाथों से मिली ठंडई का क़हर कम नही होता । 

मिज़ाज अक्खड़ बनारसिया कि कदमों का ठहरना ज़रा मुश्किल है.....
उस पर तुम्हारे सोलह सोमवार का व्रत का असर कम नही होता ।  

कुछ मुलाक़ातों बातों में कोई कहानी बनाना बड़ा मुश्किल है......
इस तरह बिन बताए गोदौलिया की भीड़ में कोई साथ नही छोड़ता।

अब तो यहाँ किनारों पर एक एक पल भी काटना मुश्किल है......
ये वही अस्सी घाट ही है जहां दिन का भी पता नही चलता।

बीतती शाम के साथ दिल को सम्भालना बड़ा मुश्किल है......
अब तो गंगा आरती पर भी उनका आना जाना नही होता ।

अब तो गंगा किनारे यूँ ही तनहा भटकना भी मुश्किल हैं......
तुम्हारी यादों का कारवाँ कभी साथ ही नही छोड़ता।

Thursday, 16 January 2020

मोहब्बत और तुम !

क्या ख़ाक असर होगा अल्फ़ाज़ों के समंदर में,
दिलों की बात समझने को आंखों के ये इशारे ही काफ़ी है....

तुमने कभी देखकर यूँ ही मुस्करा दिया था,
और हम आज तक तेरी मुस्कान का मतलब ढूँढ रहे हैं.....

उनको शिकायत है कि हम उन पर गौर नही करते !
गौर करने वाली बात है कि शिकायत भी हमसे ही......

तुम तो मेरे लिए यूँ ही बेवजह बेहद ख़ूबसूरत थे....
तुमको या दूसरों को मैं इसकी वजह क्या बताऊँ ?

ये जो मेरे हिस्से में रात सुहानी है....
तेरी ही तो निशानी है!

वो दुवाओं में भी अपना हुस्न बरकरार माँगती है , 
हमसे दीवानगी वो कुछ इस क़दर बयाँ करती है। 

मदहोश करने को इन तरंगों में वेग कितना है.... 
मुझमें उठती है जो तेरी उँगलियों के छूने के अन्दाज़ से।

काश तुम भी इस बारिश सी होती 
तुम बरसते और हम भीगते !
और ये सिलसिला यूँ ही चलता रहता...

सुना है बेमौसम बरसात भी होती है,
तुम भी मिल लिया करो.... कभी... बेवजह....!

बरस बीते, और अब तो तेरे दिए सभी घाव भी भर गए हैं.....!
लेकिन कमबख़्त ये पुरवी बयार..... काफ़ी है.... तेरी याद दिलाने को !

मैं बनारस !

जब हमने बनारस को छोड़ा था,
एक हिस्सा अपना वहीं छोड़ा था !
निकल पड़े थे निभाने दुनिया की रवायतों को,
शरीर साथ था मगर आत्मा को वहीं छोड़ा था।

पहले कुछ और ही आनंद था ये जानने वाले ये बताते हैं 
हम भी पूछने वालों को अपनी कहनी कुछ यूँ सुनाते हैं , 
जन्म तो कहीं और ही हुवा था हमारा ये सब जानते हैं,
पर पुनर्जन्म का स्थान तो सबको हम बनारस बताते हैं  ।

किरदार क्या हूँ मैं, कैसे बयाँ करें तुमको, हम नही जानते हैं,
एक नाम मिला था आनन्द हमें और सब इसी से पहचानते हैं,
किसी ने पूछ लिया कि तुम्हारे बारे में कुछ और जानना चाहते हैं 
बनारस के पहले या बाद? जीवन के यही दो हम अध्याय बताते हैं। 

सर्द इश्क़...

रंग कई रूप कई
रोज़ कोई कहानी नई।

दिन वही रात वही 
ज़िंदगी वही तारीख़ नई।

शख़्स वही प्यार वही 
कहाँ से दूँ दलीलें नई?

उन्नीस वही बीस वही 
उन्नीस-बीस की बात नई।

गर्मी वही सर्दी वही 
सर्द इश्क़ में गर्मी नई।