Saturday, 11 July 2020

जरुरत......!

हमारे जीवन चरित्र के कई आयामों का निर्धारण हमारे जीवन में पड़ने वाली जरूरतों के पूरा या अधूरा रह जाने से उत्पन्न परिणामों से होता है। ये पहले वाली लाइन कुछ ज्यादा ही पेंचीदा हो गई, लिख तो दिया, लेकिन जब खुद दोबारा पढ़ा तो मैं खुद चक्कर खा गया। इसको साधारण भाषा में समझने की कोशिश करते हैं। हमारे जीवन में कुछ बेसिक जरूरतें होती हैं जिनके बिना हम जीवित ही नहीं रह सकते, जैसे- जल, भोजन, वायु इत्यादि। इसके बाद कुछ जरूरतें जीवन को आसान बनाने के लिए होती हैं, जैसे खाना पकाने के लिए लकड़ी का चूल्हा, गैस-सिलिंडर, माइक्रोवेव या फिर इंडक्शन। इसके बाद आता है सोशल स्टेटस बनाने वाली जरूरतें! ये जरूरतें जरूरत न होकर दिखावा ज्यादा होती हैं जिन्हें एक व्यक्ति सामने वाले के प्रभाव में आकर या फिर सामने वाले पर प्रभाव डालने के लिए करता है जैसे कार ही ले लो- इसमें ब्रांड ज्यादा मैटर करता है और कितना मंहगा ब्रांड है ये भी। अब आखिरी में आती है जरुरत जो आपके खुद के लालच के वजह से पैदा होती है जैसे एक नहीं चार घर, चार कारें कई किलो जेवरात इत्यादि। ये लालच कभी-२ अति सुरक्षा के भाव के वजह से भी आती है। मानव मन, क्या-२ न जमा कर ले! अपने लिए, अपनों के लिए।  

कोरोना काल में इन जरूरतों में अंतर समझ में आ गया। ये कोरोना कहाँ-२ पहुँच जाता है। मेरी लेखनी में इसका जिक्र आ ही जाता है, न चाहते हुए भी। आये भी क्यों न? जिस तरह महात्मा बुद्ध को बरगद के पेड़ के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, उसी तरह मुझे कोरोना के काल और संरक्षण में ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसे भी अब गुरु का दर्जा प्राप्त है मेरी ज़िन्दगी में। सिर्फ मेरी ही नहीं, और लोगों की जिंदगी में भी कोरोना का रोल गुरु से कम नहीं है। अब सफाई को ही ले लीजिए। सफाई अभियान को लेकर मोदी जी ने न जाने कितनी झाड़ू लगाई, लगवाई और कितने करोड़ का बजट भी खर्च कर दिया लेकिन लोगों को सफाई न सिखा पाए। कोरोना ने एक झटके में भारत जैसे देश को सफाई सिखा दी। सिर्फ एक ही सन्देश- सफाई रखिये वरना साफ़ हो जाएंगे। लेकिन इस कोरोना ने जरूरतों की फेहरिस्त में कुछ चीजें और बढ़ा दी- सैनीटाइजर और मास्क। अब महीने की तनख्वाह मिलने के बाद राशन के साथ-२ ये चीजें भी भराई जाएँगी। दुकान वाले भैया २-४ लीटर सैनीटाइजर और दर्ज़न भर मास्क भी डाल देना। और हाँ पिछली बार के सैनीटाइजर की क्वालिटी ठीक नहीं थी। बीवी से सुनने को मिल गया, दो-चार आशीर्वचन। इस बार ध्यान रखना। अगर आपको दुकान पर ऐसा कुछ देखने को मिल जाये तो ताज्जुब न करियेगा। आपके साथ भी हो सकता है। तैयार रहिएगा। 

कुछ भी हो पर दिल में शांति बहुत है। थोड़ी-बहुत समस्याएँ हैं पर वो पहले भी थीं। हमेशा रहेंगी। चुपचाप कार्यालय जाओ, काम निपटाओ और कभी कार्य स्थल पर कोई मुश्किल आ जाये तो कोरोना तो है ही न, वो बचा लेता है। उसके बाद सीधे घर आओ, पानी पियो और आराम करो। न किसी फंक्शन में जाने का टेंशन और न ही किसी का बुलावा। न ही पहले की तरह किसी के अचानक घर आ टपकने की टेंशन। पूरी शाम और रात अपनी। इतवार भी पूरा अपना। उठो। मंजन। नाश्ता। शेविंग। फेशियल किट से फेशियल। स्नान। फिर दोपहर के १२ बजे तक लंच। और फिर मसनद गले लगाकर फुफुवा के सोना। बिना किसी चिंता के। बच्चे होने के बाद से गले लगाने को मसनद ही मिलता है। शाम में मस्त लिखा गया। दुनिया भर की साइट पर पोस्ट किया गया। इसी बीच बीवी से दो-चार आशीर्वचन भी लिए गए और जल्दी से दिए गए निर्देशों का पालन कर पुनः सोशल साइट पर डाले गए पोस्ट पर आने वाले लाइक और कमेंट का इंतजार करने लगे। मतलब कि आप बस इतना समझिए कि कोरोना ने जीना सीखा दिया। सारी फिजूल की जरूरतों, रवायतों को ख़त्म कर दिया। खुद पर ध्यान देने को समय ही समय। 

कुल मिलाकर सुकून से जीने के लिए जितना हो सके, जरूरतें कम रखिए और साथ में बयाने भी।जान है तो जहान है। दूर से ही अपनों के हाल-चाल लेते रहिए। पैसे डिजिटली भेजे जा सकते हैं। होम डिलीवरी का जमाना है। अब तो सराकरें भी घर तक आकर डिलीवरी कर रही हैं। पैसा भी सीधे खाते में भेज रहीं हैं, बिना किसी कमीशन के! बाकी साथ रहने की इतनी चुल्ल है तो पढ़-लिख कर गाँव-घर से दूर जाने की क्या जरुरत थी? पड़े रहिए ..... शांति से! जहाँ भी हैं। अगल-बगल वालों को ही परिवार समझिए। घर से निकलने की जरुरत नहीं। मिलने-मिलाने की भी नहीं। मिलने से याद आया कि बहुत दिन हो गए भैया की साली से मिले हुए। मिस कर रहीं होंगी ! चले ही जाते हैं मिलने.......! अपनी गाड़ी से....... :)

और हाँ. . . .  प्ले स्टेशन-4 भी लेना है ;) . . . !

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/११.०७.२०२०


Friday, 10 July 2020

चौराहा...

केवल चार तरफ़ से आ रही सड़कों का मिलन ही नही होता है चौराहा। कई प्रकार की जिंदगियों का जंक्शन भी होता है। अपने आप में विविधताएँ लिए हुए दिन भर कई बदलावों के चक्र से होकर गुजरता है ये। सुबह 9 से 11 और शाम में 4.30 से 7 तक बेहद व्यस्त रहने वाला चौराहा पूरे दिन लगभग एक जैसा रहता है और रातों में इसके हिस्से आता है केवल अकेलापन। दिन भर की थकान को मिटाती, सुस्ताती हुईं चारों ओर की सड़के एक दूसरे से बैठ दिन भर की घटनाओं पर बतकही करती।

कई तरह के भावों से गुजरता हूँ मैं चौराहे पर। अक्सर लाल बत्ती पर रुकना होता है और फिर शुरू होता है ऐसे मौके का फायदा उठाने को तैयार बच्चों या फिर न जाने किसका बच्चा लिए माँ रूपी आवरण ओढ़े हुए औरतों का भीख मांगने का सिलसिला। इन सब चीजों पर इतना पढ़ और देख चुका हूँ कि दया कम आती और इनके रैकेट से डर ज्यादा लगता है। लाख खिड़की पर कोई खड़ा माँगता रहे, मुड़कर नही देखना और चेहरे पर मनहूसियत का ओढ़ लेना मेरा रोज का सिलसिला हो गया है। लेकिन अगर मांगने वाला थोड़ा अधिक जोर और समय दे दे तो मैं ज्यादा देर ठहर नही पाऊँगा और कुछ न कुछ दे ही दूँगा। हाँ बूढ़ी औरतों की मदद करने से खुद को रोक नही पाता। खैर.....! 

उधर चौराहे के कोने पर भीड़। 4 पुलिस वाले और कुछ बाइक वाले लाइन लगाए हुए। इन 4 पुलिस वालों में 2 पुलिस वाले बाइक पर बैठ कर चालान का पर्चा भरते हुए और दो दौड़-2 कर, लाठी दिखाकर दूसरे बाइक वालों को रोकते हुए। कुछ शातिर बाइक वाले पुलिस को गच्चा देकर निकल जाते हैं तो कुछ बाइक वाले रोके जाने पर सबसे पहले फ़ोन निकाल कर सीधे राष्ट्रपति कार्यालय को फ़ोन लगाने की मुद्रा में और बाकी बेचारगी से चालान कटाते हुए......! बेचारे लोग! मैं कार में बैठे-2 एक दयनीय दृष्टि से बाइक वालों को देखते हुए चौराहा पार करता हूँ। इस दौरान दिल में एक अलग ही गर्व का अनुभव और अपने अन्दर के पुलिसिया डर को छुपाने के भाव से दो-चार होता हूँ मैं। चौराहा पार कर लेने पर होने वाले विजय के एहसास की मानों कोई कीमत ही नहीं।

फिर भी एक अदद ऐसे चौराहे की दरकार है ज़िन्दगी में जिसकी लाल बत्ती पर, मैं कार की पिछली सीट पर बैठा रहूँ और तभी तुम अपनी स्कूटी से आकर मेरे बगल में रुको। ऊपर से नीचे तक पूरी ढकी तुम और हेलमेट के भीतर से इधर उधर देखती तुम्हारी आँखें..........और फिर अचानक से हमारी नज़रें टकरा जाएँ! संकोच से दोनों अपनी नज़रें छुपाते हुए........ लेकिन...........तिरछी निगाहों से एक-दूसरे पर पूरा गौर फरमाते हुए फिर हमारी नज़रें टकरा जाएँ और मुस्कान का आदान-प्रदान हो जाए! काश..........…....... !

ऐसी लाल बत्ती कभी हरी न हो फिर!

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/१०.०७.२०२०

Saturday, 4 July 2020

शहादत

नम हैं ऑंखें सबकी इस खबर से
न जाने कितनों ने अपना साथी खोया है।

तुम सो गए सदा के लिए लेकिन
कितनों को जगाने का काम किया है।

देखो तुम्हारी शहादत ने फिर से 
ठंडे पड़े खूनों में आज फिर से उबाल दिया है।

दुर्व्यवस्था और अपराध से बोझिल इस समाज में देखो,
बारूद से भरे दिलों में तुमने चिंगारी का काम किया है।

कानपुर पुलिस के शहीदों को नमन 🙏

Sunday, 28 June 2020

शॉपिंग...😁

यह कला बेहद पुरानी है और इस कला में पारंगत होना आपको औरों से अलग रखता है। नहीं तो लाख खर्च कर के कुछ भी ले आइये, कोई काम का नहीं। खासकर कपड़ों के मामले में। यदि आपको समझ नही है तो आपका तो कटना तय है। रुपया पैसा आदि की खोज से पहले इस कला का प्रारम्भ हो चुका था। प्राचीन काल में इस कला के तौर तरीकों पर मैं नहीं जाऊँगा। जैसे भी करते रहें हो उनकी बला से। लेकिन एक बात तो तय है कि जिस तरह से अन्य कलाओं को सीखने के लिए अभ्यास और समय की जरूरत होती है, उसी तरह शॉपिंग जैसी कला को सीखने के लिए भी आपको अधिक नहीं बहुत अधिक समय देना पड़ेगा। एक बार आपके पास पैसे न हो तो भी चलेगा। वो कहते हैं न कि खरीदना नहीं तो देख ही लेना। हा हा ...😂।

मुझे शॉपिंग करना नहीं आता। नौकरी से पहले तो मैं मुश्किल से ही दुकानों पर जाता था। गया भी तो घर से लिस्ट बना ली, दुकान पर जाकर थमा दी और बाद में दुकानदार के लिखने के अनुसार हिसाब लगा लिया। दिक्कत तो तब आती थी जब कपड़े लेने हों। अगर दुकानदार कामचोर निकला तो दो-चार टाइप ही दिखाता था जिसमें पसन्द न आने पर बड़ी मुश्किल से ही कह पाता था कि कुछ और दिखाओ। ये कुछ और दिखाओ मेरा आखिरी प्रयास होता था (चूंकि एक ही काम को कोई मुझे बार-२ बोले तो मैं झल्ला जाता हूँ इसलिए दुकानदार के मनोभावों को समझ लेता था कि अब ये झल्लाहट की सीमा पर पहुंच चुका है या फिर पहुँच न जाये इसकी फिक्र मुझे ज्यादा रहती थी)। यदि कुछ अच्छा लगा तो ठीक वरना जो भी सामने पड़ा हो उसे ही ले लेता था। फैशन सेंस तो मुझमें था नहीं और दुकानदार को बार-२ परेशान करने की हिम्मत मुझमें थी नहीं। कहीं मना कर दिया दिखाने से..... ! तो....! इसलिए बेइज्जती न हो, इस डर से मैं कुछ भी ले लेता था। अब चाहे वो कपड़ा मुझ पर ठीक लगे या न लगे, मैं अपने आपको उसमें अच्छा दिखने की कल्पना कर लेता था। इस तरह जब तक वो कपड़ा चलता मेरी शंका का एडजस्टमेंट चलता रहता। इसी वजह से मुझे छोटी दुकानों से नफरत हो गयी। न तो उनके अंदर उपभोक्तावाद के चलते उपभोक्ता के प्रति सम्मान और न ही अपनी चीजों को दिखाने का सलीका होता है। इसीलिए मैं जाता भी नहीं।

नौकरी लगी। अब पैसे का संकोच नहीं। लेकिन दिल में दुकानदार के मना कर देने का डर आज भी जिंदा है। इसलिए ऐसी दुकानें जहाँ सामान निकाल कर दिखातें हैं, मतलब सामान सामने नही होता है, मैं वहाँ जाता ही नहीं। मॉल कल्चर मेरे लिए वरदान साबित हुआ और कपड़ों के अलावा छोटी-२ घरेलू चीजों के लिए तो ऑनलाइन मार्किट तो मानो सीधे प्रभु की कृपा। मेरे जैसा आदमी आज तक सारी शॉपिंग ऑनलाइन। अब तो सब्जी भी ऑनलाइन आता है। लखनऊ में हूँ लेकिन मजाल हो कि यहाँ की प्रसिद्ध अमीनाबाद बाजार गया ! बीवी के साथ भी नहीं। इतनी भीड़। मतलब की दुकान ढूढने में ही पसीना आ जाए। कभी सामने से रिक्वेस्ट आ जाए तो सीधे मना.... भले ही गृह युद्ध हो जाए। खा लेंगें एक दो थप्पड़। 

फैशन सेंस की कमी को छुपाने के लिए सीधे ब्रांडेड स्टोर । और कसम गरीबी वाले संकोच की कि कभी टैग देखने की कोशिश की हो। स्टोर वाला क्या सोचेगा? इज्जत नही गिरानी अपनी। पूरे कॉन्फिडेंस से अटेंडेंट को आवाज दी और अपनी जरूरत बात दी। जहाँ सामान उपलब्ध वहां वाले सेक्शन पर ले जाया गया। दो-चार पीस देखा, थोड़ा सा निराश होने जैसा मुंह बनाया और दो-तीन सेट निकलवा लिए। पहन कर देखा गया। जम तो नहीं रह था लेकिन लेडी अटेंडेंट बोल दी सर अच्छा लग रहा है, आप पर जँच रहा है। फिर क्या जितने सेट निकले थे सब पैक करा लिए। जोश में बिलिंग भी हो गयी। क्रेडिट कार्ड से भुगतान भी हो गया। फिर उस लेडी अटेंडेंट ने मुस्कुरा कर थैंक्यू बोला और हम भी मुस्कुराते हुए बाहर की ओर। लेकिन स्टोर से पार्किंग में खड़ी गाड़ी तक पहुँचते-२ सोचे कि यार लेना तो एक ही शर्ट था और ले लिए क्या-२। बिल भी पन्द्रह हज़ार का। घर पहुँचे लेकिन बीवी को दाम नही बताए। बोल दिए सेल चल रहा था ४० % ऑफ का। हफ्ते भर अफसोस रहा। बस खुशी इतनी थी कि कपड़ा ब्रांडेड था और दो-चार लोग तारीफ भी कर दिए थे। पता नहीं क्यूँ? कहीं पद की वजह से तो नहीं। छोड़ो हटाओ।

बीवी के साथ शॉपिंग मेरे लिए बेहद कठिन। ये नहीं कि समय बहुत लगता है। वो तो यूनिवर्सल समस्या है और उसके लिए मैं  तैयार रहता हूँ। अब धीरे-२ बच्चे हो गए हैं तो उनकी समय लगाने वाली आदत बदल रही है। मुझसे ज्यादा जल्दी में तो वो रहती हैं। खैर.....! मुद्दे पर आते हैं। मैं परेशान हूँ उनकी मुँह पर सीधे मना कर देने वाली आदत से। घण्टों देखने के बाद सीधे मना और दुकानदार को सुना अलग से देना कि घटिया दुकान है और कुछ ढंग का है ही नहीं इनके पास। चाहे वह दुकान गाढ़ा भंडार जैसी बड़ी दुकान क्यूँ न हो। मेरे जैसा संकोची आदमी अंदर ही अंदर दो गज जमीन के नीचे। गायब होने का मंत्र आता तो मैं अब तक पढ़ चुका होता।

एक बार की बात है। किसी दोस्त की शादी में जाना था और बीवी को अर्जेंट शॉपिंग करनी थी। रात के नौ बजे थे । आलमबाग बाजार घर से 5 मिनट की दूरी पर, गाड़ी से। गाड़ी उठायी और आलमबाग। इस उम्मीद के साथ शायद कोई दुकान मिल जाए। मॉल में जाते तो गाड़ी खड़ी करने से दुकान तक पहुँचने में 10 बज जाते। इसलिए नही गए। गाड़ी धीरे-२ सभी दुकानों को निहारते हुये चली जा रही थी कि एक साड़ी भंडार खुला मिल गया। झट से गाड़ी से उतरे और दुकान पर। दुकानदार बोला कि अब बंद हो रही है कल आइए लेकिन फिर पीछे से किसी मालिक टाइप आदमी की आवाज आई कि आने दो और शटर थोड़ा डाउन कर दो। खैर.....उसने दिखाना चालू किया। लगभग एक घंटे की मेहनत के बाद, बीवी के सेलेक्टिव नेचर के बावजूद मेरी भारी कोशिशों के उपरान्त तीन पीस सेलेक्ट हुए। इस बीच लग रहे समय और दुकानदार के चेहरे के भावों को पढ़कर मैं बहुत ही अधिक प्रेशर में था। कि दुकान बन्द होने जा रही थी और भाईसाहब ने हम पर कृपा करके एक घण्टे दे दिए। 

बिलिंग काउंटर पर पहुँचे ही थे कि बीवी के मन में क्या आया और वो बोल पड़ी- नहीं चाहिए........! रहने दो......! कुछ खास नही लग रहे कपड़े...... ! भाईसाहब ..........! मैं तो बिल्कुल जड़ हो गया। सर से लेकर पाँव तक भाव शून्य। क्या बोलूँ? बड़ी मुश्किल से मैंने दुकानदार की तरफ देखा। उसके चेहरे की भाव भंगिमा पढ़ने के बाद मैं तपाक से बोल पड़ा कि क्यूँ नही चाहिए। बढ़िया तो है! बीवी- नहीं...... नहीं चाहिए। मैंने स्थित और दिल दोनों को संभालते हुए थोड़ा जोर लगाकर कहा कि नहीं मुझे ये दो पसंद हैं और में ये ले रहा हूँ। तीसरी वाली, ये वाली निकाल देते हैं। इस तरह मैंने बीवी की बात को कुछ हद तक रखते हुए जबरदस्ती दो पीस ले लिए और बिलिंग कराकर बिजली की गति से दुकान से बाहर। उस दिन मुझे समझ आया कि शॉपिंग के लिए जेब मजबूत हो न हो, दिल जरूर मजबूत होना चाहिए। कमजोर दिल वालों के बस की बात नहीं। उसके बाद से मैं कभी गलत समय पर बीवी को लेकर शॉपिंग को नहीं गया। आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि जबरदस्ती में लिए गए वो कपड़े आज तक नहीं पहने गए! खैर.............मौके पर जान बची और क्या चाहिए। भले ही इस जान बचाने की कीमत कुछ भी हो.......!

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२८.०६.२०२०

Saturday, 27 June 2020

लालच!

कोई ये कहे कि उसके अन्दर लालच नही है तो गलत कहता है। कभी-२ ये लालच बड़ा होता है और कभी छोटी-२ चीजों का लालच। बचपन से शुरू ये आदत जीवन भर साथ देती है, बस रूप बदलता रहता है। मेरी माने तो अगर लालच न रहे तो जीवन का कोई पर्याय नही है। साधु-सन्त, सन्यासी वगैरह भी ईश्वर को पाने के लालच में ही दुनिया की मोह-माया का त्याग करते हैं।

मेरे छोटे बेटे। डेढ़ साल के । खाने की कोई चीज लेकर बैठो तो खाएँगे बाद में, पहले बड़े वाले बेटे को धक्का मार-२ कर दूर करेंगें। पता नहीं ये प्रोग्राम कैसे डेवलप हो गया। इसकी कोडिंग कब हो गई हमसे। हम तो इतने होनहार न थे। खैर..... अभी तो इस हरकत पर प्यार आता है। इससे साबित होता है कि लालच सीखा नहीं जा सकता, ये इनबिल्ट होता है। बड़े बेटे में नही है इस तरह के लालच की अतिरेकता और न वो छोटे को देखकर सीख पाया।

मेरे जीवन में लालच का रूप अलग है। नई किताब का लालच, उसे सूँघने का लालच। एक अच्छे पेन का लालच। एक अच्छी और खूबसूरत संगत का लालच। वीडियो गेम का लालच। नए गैजेट का लालच। टेक्नोलॉजी का लालच। एकान्त में बैठने का लालच। कई और हैं........ सब नही बता सकता! अब इन सभी लालच में कुछ खरीदे जा सकते हैं और कुछ आपकी किस्मत से पूरे होते हैं। मेरे पूरे भी हुए। लेकिन मजा तो तब हो जब आपका ये लालच आप खुद न पूरा करें , कोई और गिफ्ट कर दे। आहा.......! आपका लालच अगर आपको मुफ्त में मिल जाये तो इससे बड़ा सौभाग्य कोई नही, इस खुशी का कोई मोल नहीं और इस लालच को पूरा करने वाला ईश्वर से कम नहीं। मगर अफसोस .... इस जीवन में कुछ भी मुफ्त नही मिलता। आज या कल कीमत अदा करनी पड़ती है। करनी पड़े ... हमें क्या... फिलहाल मौके पर जो खुशी मिलती है उसे क्यूँ छोड़ा जाए।

आज-कल एक नया लालच जुड़ गया है- मास्क और हैंड सैनिटाइजर का लालच। न जाने कितने रूप में उपलब्ध हैं ये। भाँति-२ के मास्क और तरह-२ के छोटे, कॉम्पैक्ट, पॉकेट साइज सैनिटाइजर की बोतलें गज़ब का आकर्षण पैदा करती हैं। अब आप किसी से मिलें। आपका मास्क सामने वाले से बेहतर हो तो गर्व होता है। आत्म विश्वास बढ़ जाता है। सामने वाले को बेचारे की नज़र से देखने का जो आनन्द मिलता है कि बस पूछिये मत। इस पर आप जेब से एक खूबसूरत डिज़ाइन की बोतल से सैनिटाइजर निकालकर लगा लें और अपने ही बढ़ते घमण्ड को कम करने के लिए एक जोक भी छोड़ दें तो सोने पे सुहागा। बन गया भोकाल। सामने वाला चारों खाने चित्त और आप विजयी😁। कुछ ही पल में एक मानसिक लड़ाई के विजेता और आपकी ताजपोशी। हा हा ......! गज़ब होता है इन्सान। 

फिलहाल.....! ये मास्क और सैनिटाइजर हैं बेहद जरूरी पर खरीदने को दिल नहीं करता। एक दो बार ही खरीदें होंगें, वो भी दिल पर पत्थर रखकर। ये चीजें कोई गिफ्ट कर दे तो मजा ही आ जाए। इस समय ये वस्तुएँ लालच की पराकाष्ठा पर हैं। यदि मेरे अगल-बगल का कोई व्यक्ति ईश्वर बनने की ख्वाहिश रखता हो तो उसका स्वागत है। हम उसे ईश्वर का दर्जा देने को तैयार हैं..........😜।

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२७.०६.२०२०

Friday, 26 June 2020

टेम्पर्ड ...

अनुभवों से मुझे पता चला है कि व्यक्ति गरीब नही होता है, उसकी सोच गरीब होती है। भारतीय माध्यम वर्गीय व्यक्ति पर यह लाइन शत प्रतिशत लागू होती है। हो भी क्यूँ न ? एक नई साईकल भी ले लें तो सालों उस पर लगी पॉलीथिन नही उतरती। वो व्यक्ति रोज उस साईकल के साथ-२ पॉलीथिन को भी चमकाता है। अब साईकल से मोटर-साईकल, मोटर- साईकल से कार और फिर प्लेन, वह आदमी कितना बड़ा हो जाए उसकी सोच नही बदलेगी। दिमाग से वो गरीब ही रहेगा। वो कार और प्लेन की सीट की पन्नी नही उखड़ने देगा।

खैर..... मेरा नया वाला लैपटॉप दो बार पटका जा चुका है। मेरे घर में दो हरफनमौला किरदार (रात के समय हाइपर-एक्टिव) और बेहद ही मजबूत दिल से कन्फीगर्ड, मेरे दो बच्चों का नया खिलौना बन चुका है मेरा लैपटॉप। मेरे जैसे गरीब सोच वाले व्यक्ति की औलादें इतने मँहगे शौक न जाने कहाँ से पा गए। जरूर माँ ने ही इंस्टाल किये हैं। खैर....! दो बार लैपटॉप के पटके जाने से हार्ट अटैक तो नही आया मगर दिल पर दो चार खरोंच जरूर आ गई। हद तो तब हो गई जब बड़े वाले बाकायदा अपनी जीत दर्ज करने के लिए लैपटॉप जमीन पर पटकने के बाद उस पर चढ़कर खड़े भी हो गए और पोज़ देने लगे। जैसे कोई सैनिक दुश्मन चौकी पर कब्जा करने के बाद तिरंगा लहराता है। 

पूरी रात बिस्तर पर करवटें बदलता रहा कि क्या किया जाए और कैसे बचाया जाए। छुपा कर और लॉक लगाकर तो बचाना मुश्किल हैं। क्यों न इस पर कोई हार्ड कवर लगा लिया जाए। ऑनलाइन सर्च किये मगर समझ नहीं आया। अगले दिन आफिस निकल तो ये सोच कर निकला कि आज लैपटॉप को सुरक्षित रखने की व्यवस्था किये बिना घर नही लौटूँगा। दिल में कुछ पाने की ठान लो तो फिर मिल ही जाता है। ऑफिस खत्म होने के बाद नाज़ा मार्किट पहुँचा। दो-चार दुकानों से मना कर दिए जाने के बाद निराश होने ही वाला था कि एक दयालु सज्जन ने मुझ पर दया दिखाते हुए जनपथ मार्किट में एक दुकान बता दी। आँखों में चमक लौट आयी। मैं जनपथ पहुँचा। बताई हुई दुकान भी मिल गई। उसने मेरा लैपटॉप देखा और बोला मिल जाएगा। हम भी चहकते हुए बोले, लगा दो। करीब 15 मिनट दुकान में खोजने के बाद वो बोला ये लैपटॉप तो नया है मगर मॉडल पुराना है इसलिए कवर मिल नहीं रहा। हमने भी बोल दिया - यार तुम्हारे पास सामान नही है तो ठीक है लेकिन पुराना बोलकर दिल पर घाव तो मत ही दो। खैर.......! जनपथ आये ही थे तो सोचा एक दो दुकान और देख लें।

फिर मिली एक दुकान ....... मैंडी मोबाइल । और यहाँ जाकर, मोबाइल को सजा-सँवार कर रखने वालों की शौक को परवान मिलता है। भाई साहब..... क्या दुकान! क्या भीड़! क्या दुकान पर काम कर रहे लड़कों की फुर्ती। इतनी भीड़ देखकर एक बार मैं फिर सोच में पड़ गया कि मैं तो लैपटॉप लेकर आया हूँ , निकालूँ कि नहीं। मिलेगा कि नहीं। मैने दबी जुबाँ में पूछा तो उत्तर मिला - हाँ मिल जाएगा। छोटू जल्दी से लैपटॉप का कवर निकाल। अब जाकर दिल को ठंडक मिली। इतना सुकून की दुकान पर लगने वाले एक घंटे भी बहुत अधिक नहीं लगे। इसी बीच मैंने अपना मोबाइल दिखाया कि इसका टेम्पर्ड मिल जाएगा? (बात दूँ कि इस मोबाइल के टेम्पर्ड की तलाश चार महीने से थी मगर नहीं मिल रहा था। श्री राम टावर भी हाथ खड़े कर चुका था। लेकिन वहीं है न कि जब अच्छा दौर चालू होता है तो सब अच्छा होने लगता है।) आज टेम्पर्ड भी मिल गया। वाह...... आज तो मजा ही आ गया। दुकानदार ने मस्त टेम्पर्ड लगाया। जब मोबाइल सामने आया तो विश्वास ही नही कि ये मेरा मोबाइल है। इतना खूबसूरत तो ये नए पर नही था। अब तो कोई लड़की दुल्हन के गेटअप में भी सामने आ जाये तो मैं अपना मोबाइल ही देखूँगा। 

मैं आज बेहद खुश होकर घर लौटा। कोरोना काल की रस्मों को निपटाने के बाद जब सुकून से हाथ में मोबाइल लेकर सोफे पर बैठा तो बैठते ही बच्चों की उछल-कूद में मोबाइल हाथ से सरक कर धरती को जा लगा। इस बार तो हार्ट अटैक मानो आ ही गया। हाये मेरा टेम्पर्ड। मोबाइल की फिक्र न होकर आज टेम्पर्ड की चिंता हो रही थी। झट से मोबाइल उठाया और टेम्पर्ड को सहलाने लगा। बच गया था। मध्यमवर्गीय गरीब सोच भी राहत की साँस ले रही थी। डर इतना था कि मैंने लैपटॉप को बैग से निकाला ही नहीं। कौन रिस्क ले .........!

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२६.०६.२०२०

Thursday, 25 June 2020

बारात !

अच्छा हुआ इस कोरोना ने शादियों में बारातियों की संख्या कम कर दी! हुँह.......😷। आज कल भी कोई बारात होती थी! एक रात की शादी, कुछ टाइम की बारात और कुछ घंटों के बाराती। केवल पेट भरने या फिर चेहरा दिखाने आते हैं लोग। निमंत्रण लिखाने वाले उससे भी कम! कुछ अति जहरीले निकले तो नाच कूदकर एक कोने में जाकर अपना जहर उगले और निकले। लड़की को किराए की गाड़ी से घर लाना ही था तो इससे अच्छा लड़की खुद ऊबर बुक करके लड़के के यहां चली आती....... हुँह...! अच्छा हुआ कोरोना महाराज ने अपनी कृपा कर दी।

बारात तो हमने की है...... बचपन में और जवानी के उदय काल में भी। सुबह से तैयारी होती थी। कैसे नया वाला शर्ट जो साल भर पहले लिया था उसे निकालने की जल्दी होती थी। देर नही होनी चाहिए। सारी तैयारी कर जाकर खड़े हो गए..... शादी वाले घर पर नहीं! खड़ा वहां होता था जहाँ गाड़ियाँ खड़ी होती थी। सीट भी तो छेकानी थी। सूमो में बीच वाली सीट की खिड़की पकड़ कर बैठे। लेकिन बारात निकलने तक सारी एडजस्टमेंट होने के बाद बैठने को मिलता था तो ट्रेक्टर की ट्राली में । सारे समान की रखवाली का जिम्मा अलग । घंटों की मेहनत यूँ बर्बाद होती थी और मन में गुस्से का ज्वार सातवें आसमान पर अलग। तब तक गालियाँ नही सीखीं थी वरना दो चार बोलकर भड़ास निकाल लिया जाता। लेकिन ट्राली का मजा अलग। अक्सर ट्रॉली पर बैंड बाजे वाले बैठते थे । बस रास्ते भर मौज, गाना -बजाना और बगल से गुजरने वालों को दूर तक ताकना। कोई नया जोड़ा साईकल पर बैठकर निकलता हुआ दिख जाए तो बाँछें खिल जाती थी और नजरें उन्हें तब तक ताकती थी जब तक वो क्षितिज में विलीन न हो जाएं। इसी बीच नचनिया महोदय रास्ते में ट्रेक्टर रूकवाकर नाचने के लिए अपना ईंधन भी ले लिए और धीरे से फुल हो गए। हम भी तिरछे देखकर मुस्कुरा दिए।

बारात पहुंची । गाँव के बाहर रुकाया गया। कोई खेत या प्राथमिक विद्यालय में शामियाना लगा और एक कोने में खटिया और गद्दों का ढेर लगा हुआ। सब फटाफट अपना अपना कब्जा किये और बिस्तर छेंका लिए। दूल्हे की खटिया अलग और फूफा जी का मुआयना चालू। चद्दर तो गंदी है। ये भी कोई बात हुई। हमारा लड़का यहां बैठेगा। कतई नहीं। बवाल चालू। लड़की वाले शांत खड़े। तब तक गाँव के स्वघोषित कुछ सम्माननीय लोग पहुँच कर मामला शांत कराए। फिलहाल चद्दर बदल गई। लेकिन हमको का मतलब। हम तो पानी पिलाने वाले के बगल खड़े व्यवहार बनाने की कोशिश में..... ई भी कोई बात हुई ! एक चद्दर के लिए बवाल। बड़का फूफा बने हैं। पानी वाला भी हाँ में सिर हिलाया। बस क्या ..... धीरे से पटा कर मिठाई का दू डिब्बा अंदर। अब कोई भी काम हो तो पानी वाले को ढूंढ लिए और फिर पूरा वी आई पी  वाला ट्रीटमेंट लिए। अगल बगल वालों को जलाने का जो मजा वो और कहाँ। 

बारात द्वार-चार को बढ़ी। नाचने वालों में लोटने की होड़ और बाजे वाले से तरीके तरीके के गाने की माँग, लेकिन उस पर कोई असर नहीं। उसने जो एक लय पकड़ी तो आखिरी तक उसी पर डटा रहा। कई जीजा फूफा ताव दिखाए और चले गए मगर बाजे वाला टस से मस नही हुआ। हम नाचने वालो से सुरक्षित दूरी बनाकर बारात के सबसे आगे। द्वार पर सबसे पहले पहुँचे और व्यवस्था का  पूरा ब्यौरा लिया गया। इसी बीच दुल्हन की सहेलियों, भाभियों और न जाने किनसे किनसे मुस्कान का आदान प्रदान हो गया। कुछ ही देर में हम बाराती कम घराती ज्यादा। दुल्हन पक्ष को कुछ भी संदेश दूल्हा पक्ष को भेजना हो तो हमे ही ढूंढा जाए। फिर क्या घर भीतर तक इंट्री हो गई।

द्वार-चार हुआ। खाने पीने की तैयारी। दुल्हन पक्ष की गाँव की औरतें गारी गाने को तैयार। दूल्हा के मामा, फूफा, चाचा, बाबा का नाम चाहिए। कौन बताएगा। अब यहाँ पर भी हम आगे। इतनी देर से मेहनत जो कर रहे थे। फिर क्या हम सब नाम बता दिए.....लेकिन दूल्हा के रिश्तेदार का नहीं, दुल्हन के रिश्तेदारों का 😂😋। खैर गारी शुरू हुआ और फिर जोर की हँसवाई हुई। दुल्हन पक्ष से कौनो मरद दौड़ता हुआ आया.... ई का अपने ही घर वालों को गरियाये दे रही हो। औरतें संन्न ....! ये का हो गया। नज़रें हमको ढूढने लगी । हम भी मौका देखकर दाएँ बाएँ हो गए।  नाश्ता तो हम औकात से ज्यादा पेल चुके थे सो खाने की भूख थी नहीं। इधर शादी की शुरुवात होने लगी और उधर हम परदहिया सिनेमा खातिर सबसे आगे वाली लाइन में डटे मिले। सुबह चार बजे के आस पास भूख लगी। क्या किया जाए। पता चला कि अभी शादी चल रही है। तो उधर चल दिये और शादी के बाद वाली पंगत में बैठकर भूख मिटाई और निकल लिए सोने।

सुबह हुआ। नित्य कर्म से निपटकर पूरे गांव का एक चक्कर और फिर लड़की वालों के घर पहुंचकर पंचायत चालू। घर का सारा भेद लिया गया। कौन साली है, कौन मौसी और कौन मामी,,,, सब पता किया गया। मजाक वाले रिश्तों को टॉप पर रख गया। जूता कौन चुराएगा पता किया गया। आखिर में चलते चलते दूल्हे का खास जो बनना है। भाई.... सुबह का नाश्ता हुआ और फिर अँचर धराई का कार्यक्रम चालू। हम भी बिल्कुल तैयार, जूता के पास। कसम से हाथ तो पकड़ ही लेंगें। जूता जाए तो जाए। इसी बीच दूल्हा और दुल्हन की भाभी के बीच हंसी मजाक चालू हो गया। दूल्हा जी अंचरा कस के पकड़े थे और भाभी जी उनकी नाक। सब तफरी लेने में लगे थे और हम भी। बस यहीं हमारा कट गया। सब हंसी मजाक निपटने के बाद पलटकर देखे तो जूता गायब। अब काटो तो खून नहीं। सारे इरादों पर पानी जो फिर चुका था। फिर हमने नज़रें उठा कर इधर-उधर नहीं देखा। सारी खिसियाहट समेटकर धीरे से ट्राली की ओर। अब बारात में हमारे लिए कुछ नही बचा था 😑।

किस्मत अच्छी थी। खाने पीने का सारा सामान ट्राली पर रखाया। हम भी खुश। रास्ते के नाश्ते के इंतजाम हो गया। अब ट्राली पर बैठने का मलाल न रहा 😂। बहुत दिन से ऐसी बारात मिस करता था। आधुनिक बारातों में जाने की इच्छा तो नही होती थी मगर समाज की खातिर जाना पड़ता था। भला हो कोरोना का जो इसने बाराती की संख्या 50 तक सीमित कर दी। बुलाएगा तो हमें वैसे भी कोई नहीं लेकिन अगर गलती से पूँछ लिया तो कोरोना का बहाना तो है ही। नहीं जाएँगे। हा हा हा ......!

~अनुनाद/आनन्द कनौजिया/२५.०६.२०२०