न रुको चलते जाओ
सफर कंटीला बहुत बचते जाओ
राह दुर्गम बहुत मगर बढ़ते जाओ
देख पैरों के छाले यूँ न घबराओ
नही कोई शजर कि ठहर पाओ
मत हो दुखी कि हंसते जाओ
समय लंबा इंतजार का इसका लुत्फ उठाओ
वो देखो सामने मंजिल कि कदम जरा तेज बढ़ाओ
अब खत्म सारी अड़चने कि अब ठंड पाओ
भूलकर दर्द सारे चुपचाप गुज़र जाओ।
Thursday, 2 May 2019
चुपचाप गुज़र जाओ....
नदी के दो किनारे हम!
नदी के दो किनारे हम,
नज़रों में रहकर भी दूर हम।
जग जानता कि इक दूजे के हम,
फिर भी मिलने को तड़पते हम।
नदी सा चंचल मन, अधीर चितवन,
यही नियति नही हमारा मिलन।
नदी के दो किनारे हम।
तुम बिन...
रात दिन
मुस्कुराये बिन
रहे गमगीन
समय में इन
सुकूँ न चैन
क्या बताऊँ
जिया कैसे
और रहा
हालातों में किन
तुम बिन।
आओ किसी दिन
बुलाये बिन
पल रहे छिन
करो इन्हें
मुकम्मल मोमिन
लगो गले
महसूस करो
धड़कनों को इन
जीवन नीरस ये
तुम बिन।
हाथों की लकीरों में.....
हाथों की लकीरों में,
लिखा सब कुछ है।
जी लो खुलकर कि सब कुछ पहले से तय है,
लिखे को बदलने की कोशिश कर, परेशान क्यूं होना हैं।
न कर शिकायत कि मदद को कोई नही है,
ये तेरी जिंदगी है तुझे खुद ही लड़ना है।
खुदा की मर्जी है हर घटना में,
तुझे सबसे खुद निपटना है।
ले अल्लाह का नाम और भर हिम्मत कि,
कश्ती तूफानों से पार तुझे खुद करना है।
तू अगर इज़ाज़त दे!
एक गुस्ताखी सरे आम कर दूँ,
भरी महफ़िल तेरा नाम ले लूँ।
सिफ़ारिश पर ये उँगली मैं तेरी ओर कर दूँ,
तेरे चेहरे के नूर से मैं शमा ये रोशन कर लूँ।
नाम के संग तेरे मैं अपना नाम जोड़ दूँ,
चाहने वालों से तेरे मैं पंगा मोल ले लूँ।
लोगों के ज़ुबान पर ये चर्चा आम कर दूँ,
तेरी मेरी यह कहानी मैं अपने नाम कर लूँ।
अब वो बात न थी!
बरसों बाद बात हुयी तो करने को कोई बात न थी,
न कोई सवाल न जवाब और न ही कोई शिकायत थी।
दो दिल थे बेहद नज़दीक थे लेकिन अब धड़कनों में वो कशिश न थी,
हाथों में हाथ होते थे जब साथ थे लेकिन अब साथ चलने की हिम्मत न थी।
जुदा थे दूर शहरों में रहते थे लेकिन शहरों में इतनी भी दूरियाँ न थी,
मिलने की कोशिशें कर सकते थे लेकिन अब पास आने की तड़प न थी।
मिले तो आँखो में पहली सी चमक थी लेकिन किरदारों में वो बात न थी।
फिर से बन सकती थी कहानी नयी लेकिन लिखने को क़लम में मेरे स्याही न थी।
Wednesday, 17 April 2019
फैसला हो नही पाया !
दिल की बातें थी ,
ज़ुबाँ से कह न पाए
आँखों ने की कहानी बयाँ
पर वो समझ न पाए
कशमकश में समय उड़ चला
फिर न उनका कोई पता चला
मुहब्बत की कचहरी में वो न हाज़िर हुए
न उनका कोई संदेश आया
लो उठ गयी कचहरी
और फ़ैसला हो नहीं पाया ।